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हर दिन तीन बार रंग बदलता है मां मुंडेश्वरी मंदिर का पंचमुखी शिवलिंग
विश्व के सबसे प्राचीन मंदिर में शामिल है मां मुंडेश्वरी मंदिर का नाम भभुआ/भगवानपुर : कैमूर जिले के भगवानपुर प्रखंड में विश्व के सबसे प्राचीन मंदिरों में सुमार है, मां मुंडेश्वरी का मंदिर. गर्भगृह के अंदर चमुखी शिवलिंग है. मान्यता है कि इसका रंग सुबह, दोपहर व शाम में बदलता है. सावन में प्रत्येक सोमवार […]
विश्व के सबसे प्राचीन मंदिर में शामिल है मां मुंडेश्वरी मंदिर का नाम
भभुआ/भगवानपुर : कैमूर जिले के भगवानपुर प्रखंड में विश्व के सबसे प्राचीन मंदिरों में सुमार है, मां मुंडेश्वरी का मंदिर. गर्भगृह के अंदर चमुखी शिवलिंग है. मान्यता है कि इसका रंग सुबह, दोपहर व शाम में बदलता है. सावन में प्रत्येक सोमवार को बड़ी संख्या में भक्तों द्वारा पंचमुखी शिवलिंग पर जलाभिषेक किया जाता है. इसके साथ पूरे सावन माह में काफी श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचते हैं. सावन की सोमवारी को मंदिर के पुजारी द्वारा भगवान भोलेनाथ के पंचमुखी शिवलिंग को सुबह में शृंगार करके रुद्राभिषेक किया जाता है. यहां पर अध्यात्म से जुड़े रोचक तथ्य है. यह मंदिर बिहार के साथ-साथ देश के सबसे प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है.
मां मुंडेश्वरी का मंदिर भगवानपुर अंचल के पवरा पहाड़ी पर 608 फुट की ऊंचाई पर स्थित है. यह प्राचीन मंदिर पुरातात्विक धरोहर ही नहीं, पर्यटन का जीवंत केंद्र भी है. इस मंदिर को कब और किसने बनाया, यह दावे के साथ कहना कठिन है. लेकिन, यहां से प्राप्त शिलालेख के अनुसार माना जाता है कि उदय सेन नामक क्षत्रप के शासन काल में इसका निर्माण हुआ था.
इसमें कोई संदेह नहीं कि यह मंदिर भारत के सर्वाधिक प्राचीन व सुंदर मंदिरों में एक है. यह मंदिर अष्टकोणीय है. भारत के ‘पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग’ द्वारा संरक्षित मुंडेश्वरी मंदिर के उत्थान के लिए योजनाएं बनायी जा रही है. इसके साथ ही इसे यूनेस्को की लिस्ट में भी शामिल करवाने के प्रयास जारी हैं. मंदिर को वर्ष 2007 में बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद ने अधिग्रहित कर लिया था. इस मंदिर में शिवलिंग व मां मुंडेश्वरी की प्रतिमा साथ में है.
बलि की अनूठी प्रथा: मां मुंडेश्वरी मंदिर में बलि की अनूठी प्रथा है. यहां पर मंत्र से बकरे की बलि दी जाती है. लोगों का मानना है कि मन्नत पूरी होने पर लोग मनौती वाले पशु (बकरे) को लेकर मां के दरबार में पहुंचते हैं. मंदिर के पुजारी उस बकरे को मां के सामने खड़ा कर देते हैं. पुजारी मां के चरणों में अक्षत चढ़ा उसे पशु पर फेंकते हैं, तो पशु बेहोश हो जाता है. तब मान ली जाती है कि बलि की प्रक्रिया पूरी हो गयी. इसके बाद उसे छोड़ दिया जाता है.
नवरात्र में लगती है लोगों की भीड़: पवरा पहाड़ी के शिखर पर स्थित मां के मंदिर तक पहुंचने के लिए दो तरह का रास्ता है. एक सड़क के माध्यम से व दूसरा सीढ़ियों द्वारा पैदल पहुंच सकते है. पहाड़ों को काट कर सीढियां व रेलिंग युक्त सड़क बनायी गयी है. सड़क मार्ग द्वारा कार, बोलेरो, स्कॉर्पियो, बाइक आदि वाहन से पहाड़ पर मंदिर तक पहुंच सकते है. मां मुंडेश्वरी मंदिर में पूरे वर्ष श्रद्धालु आते रहते है. सावन, नवरात, नववर्ष, शिवरात्रि, रामनवमी के मौके पर श्रद्धालुओं की संख्या काफी बढ़ जाती है. यहां पर नवरात में मेला भी लगता है.
मंदिर में हैं रोचक तथ्य
मां मुंडेश्वरी मंदिर में भगवान शिव का एक पंचमुखी शिवलिंग है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका रंग सुबह, दोपहर व शाम को अलग-अलग दिखाई देता है. वर्षों बाद मुंडेश्वरी मंदिर में ‘तांडुलम भोग’ अर्थात ‘चावल का भोग’ और वितरण की परंपरा पुन: की गयी है. ऐसा माना जाता है कि 108 ईस्वी में यहां यह परंपरा जारी थी. मंदिर का अष्टाकार गर्भगृह इसके निर्माण से अब तक कायम है.
ऐसे पहुंचे मां मुंडेश्वरी तक
मां मुंडेश्वरी मंदिर पहुंचने का मार्ग सड़क मार्ग ही है. यहां का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन भभुआ रोड ( मोहनिया) है. इसके बाद यहां से सड़क मार्ग द्वारा लगभग 30 किमी की दूरी तय कर भभुआ, भगवानपुर होते हुए मुंडेश्वरी धाम तक पहुंच सकते है. यह गया-मुगलसराय रेलखंड से संबंधी है.
शक्तिपीठ धाम में शामिल है मां मुंडेश्वरी मंदिर का नाम
मध्य युग में ही मां की उपासना शुरू हो गयी थी. मां मुंडेश्वरी धाम देश के प्राचीनतम शक्तिपीठों में से एक है. यहां मां मुंडेश्वरी के विभिन्न रूपों में पूजा की जाती है. पौराणिक व धार्मिक प्रधानता वाले इस मंदिर के मूल देवता हजारों वर्ष पूर्व नारायण अथवा विष्णु थे.
मार्कंडेय पुराण के अनुसार मां भगवती ने इस इलाके में अत्याचारी असुर मुंड का वध किया. तब से इसी देवी का नाम मुंडेश्वरी पड़ा. सूत्रों ने बताया कि मां मुंडेश्वरी की प्राचीनता का महत्व इस दृष्टि से और भी अधिक है कि यहां पर पूजा की परंपरा 1900 सालों से चली आ रही है. आज भी यह मंदिर पूरी तरह जीवंत है. वर्ष के 365 दिन बड़ी संख्या में भक्तों का यहां आना-जाना लगा रहता है. मंदिर परिसर में विद्यमान शिलालेखों से इसकी ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है. 1838 से 1904 के बीच कई ब्रिटिश विद्वान व पर्यटक यहां आये थे.
प्रसिद्ध इतिहासकार फ्रांसिस बुकनन भी यहां आये थे. मंदिर का एक शिलालेख कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में है. पुरातत्वविदों के अनुसार यह शिलालेख 349 इ से 636 इ के बीच का है. इस मंदिर का उल्लेख कनिंघम ने भी अपनी पुस्तक में किया है. उसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि कैमूर में मुंडेश्वरी पहाड़ी है, जहां मंदिर ध्वस्त रूप में विद्यमान है.
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