एक चौथाई आबादी बाढ़ के साये में गुजार रही जिंदगी
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तटबंध पर सिसकी में गुजर रही रात
एक चौथाई आबादी बाढ़ के साये में गुजार रही जिंदगी डेढ़ दशक से थमने का नाम नहीं ले रहा बाढ़ का कहर गोपालगंज : काला मटिहनिया गांव के पास तटबंध पर सैकड़ों बाढ़पीड़ित शरण लिये हुए हैं. तटबंध की उत्तर हर तरफ पानी-ही-पानी है. रात्रि के दस बज रहे थे. छोटे-छोटे बच्चे मां से खाना […]
डेढ़ दशक से थमने का नाम नहीं ले रहा बाढ़ का कहर
गोपालगंज : काला मटिहनिया गांव के पास तटबंध पर सैकड़ों बाढ़पीड़ित शरण लिये हुए हैं. तटबंध की उत्तर हर तरफ पानी-ही-पानी है. रात्रि के दस बज रहे थे. छोटे-छोटे बच्चे मां से खाना मांग रहे थे. गाय और बैल डकार रहे हैं. गंडक की धारा के बीच उठती चीख और दर्द से सिसकती रात भय पैदा कर रही है. सांप और कीड़ों के बीच इनका जीवन गुजर रहा है. यह दर्द जिले में कोई पहला नहीं है, बल्कि डेढ़ दशक से गंडक की धारा जिलावासियों के लिए अभिशाप बनी है.
हर साल जिला की एक चौथाई आबादी बाढ़ के साये में जिंदगी गुजारती है. वर्ष 1999 में गंडक का तांडव तटबंध को तोड़ते हुए गौसिया से शुरू हुआ. फिर देवापुर, बतरदेह, सेमरिया से चला सिलसिला कुचायकोट तक तबाही मचाता रहा. इन 17 वर्षों में राहत, बचाव, फाइटिंग वर्क और तटबंध मरम्मत में तीन सौ करोड़ रुपये खर्च हो गये. दर्द तो नहीं थमा अलबत्ता 85 हजार की आबादी पलायन कर गयी, जो विस्थापित बन जिले के कई क्षेत्रों में जीवन बसर कर रहे हैं. इन बीते वर्षों में एक दर्जन गांव बेचिरागी हो गये. फिर भी गंडक का दर्द अनवरत जारी है. इस बार भी गंडक की उफनती धारा ने जिले के 60 गांवों के 80 हजार से अधिक की आबादी को सिसकने पर मजबूर कर दिया है. आखिर इस दर्द की दवा क्या है? अतीत में झांकें तो बाढ़ के साथ ही प्रशासन और बाढ़ नियंत्रण विभाग नीति बनाते हैं. बाढ़ बीतते ही उसकी रणनीति भी समाप्त हो जाती है. यदि ठोस नीति और कारगर उपाय किये गये होते, तो शायद प्रतिवर्ष न तो करोड़ों की राशि खर्च होती और न ही हजारों की आबादी को सिसकना पड़ता. फिलहाल सिसकती जिंदगी पर मरहम लगाने के लिए अधिकारियों की गाड़ियां दौड़ रही हैं और बाढ़ से तबाह हाथ मदद की बाट जोह रहे हैं.
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