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नकबेसर कागा ले भागा, सइयां आभागा …

गुजरे जमाने की हो गयी होली के पारंपरिक गीतआधुनिकता के रंग में रंगा फागुन का राग संवाददाता.गोपालगंजनकबेसर कागा ले भागा, सइयां आभागा ना जागा, बंगाला में उड़ेड़ा गुलाल. होली के अवसर पर उड़ते गुलाल के बीच पुरुषों की टोलियों से घुटते इन गीतों के बोल अब गुजरे जमाने की बात हो गयी है. बात ऐसी […]

गुजरे जमाने की हो गयी होली के पारंपरिक गीतआधुनिकता के रंग में रंगा फागुन का राग संवाददाता.गोपालगंजनकबेसर कागा ले भागा, सइयां आभागा ना जागा, बंगाला में उड़ेड़ा गुलाल. होली के अवसर पर उड़ते गुलाल के बीच पुरुषों की टोलियों से घुटते इन गीतों के बोल अब गुजरे जमाने की बात हो गयी है. बात ऐसी नहीं कि पर्व के उल्लास में कमी आयी है या गीत नहीं बज रहे हैं बल्कि लोगों के पूर्व के अवसर पर खर्च बढ़े हैं. होली गीत का एक बड़ा बाजार खड़ा हो गया है. लाखों का कैसेट बिक रहा है लेकिन फाग के राग पर चढ़ा आधुनिकता का रंग हमारे संस्कृति और संस्कार के रंग को न सिर्फ फीका कर दिया है बल्कि पूर्व से इसे जुदा कर दिया है. जब अतीत के गीतों को वयोवृद्ध याद कर बताते है कि उन गीतों में हमारी संस्कृति झलकती थी. कहीं इतिहास की गौरव गाथा गूंजती थी, तो किसी बोल में प्रेमी -प्रेमिका, देवर- भौजाई, पति-पत्नी के पावन प्रेम की अटखेलियां झलकती थीं. उन गीतों के बजते बोल समाज को न सिर्फ जोड़ता था बल्कि साल भर की आयी खटास को बांट कर सामाजिक समरसता की नयी दिशा देता था. दोपहर के पहले तक एक दूसरे पर कीचड़ लगा कर सराबोर करना, फिर रंगों की बौछार और शाम को दरवाजे-दरवाजे घूम कर अबीर-गुलाल लगा कर गिले-शिकवे दूर करना सामाजिक समरसता की परंपरा थी. बड़ा खर्च और दिखावापन के बीच यह पूर्व परिवार तक सिमट कर रह गया है. आज भी होली के बोल तो फूट रहे हैं लेकिन समाज को रंगीन करने के बजाय शर्मसार कर रहे हैं.

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