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राजा तो है चोर, निडर हो बच्चे ने कह डाला

।। कंचन ।। गया : ‘सुंदर है जो सच्च भी हो, यह तो नहीं जरूरी. जो कि नया है, अच्छा भी हो यह तो नहीं जरूरी. अब तो कोख किराये पर भी ली जाती है गुइंया. बच्चे वाली जच्च भी हो, यह तो नहीं जरूरी..राजा तो है चोर, निडर हो बच्चे ने कह डाला. बाप […]

।। कंचन ।।

गया : ‘सुंदर है जो सच्च भी हो, यह तो नहीं जरूरी. जो कि नया है, अच्छा भी हो यह तो नहीं जरूरी. अब तो कोख किराये पर भी ली जाती है गुइंया. बच्चे वाली जच्च भी हो, यह तो नहीं जरूरी..राजा तो है चोर, निडर हो बच्चे ने कह डाला. बाप सरीखा बच्च भी हो यह तो नहीं जरूरी’.

ये पंक्तियां बताती हैं कि आज तेजी से बदलते माहौल के बीच आदमी के जीवन में भ्रम किस तरह कई बार ईंधन का काम करने लगता है. कैसे उपलब्धियों के चक्कर में शॉर्ट-कट अपनाये जा रहे हैं. यह भी कि कैसे आज भी समाज ‘लक्ष्मण रेखा का दासों’ से खाली नहीं है. ये पंक्तियां युवा कवि अरुण हरलीवाल की उस कविता से हैं, जो रविवार को नालंदा विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों के बीच हुई एक यायावरीय साहित्यिक संगोष्ठी में उन्होंने पेश की.

समाजसेवी-पत्रकार सुरेश नारायण और गया जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन के महामंत्री डॉ राधानंद सिंह की पहल पर आयोजित ऊपरोक्त संगोष्ठी में श्री हरलीवाल ने अपनी उन अन्य रचनाओं को भी पेश किया, जो बेहद प्रासंगिक मानी गयीं. उनकी रचनाएं ‘मेरा आज सुखद-सुंदर है, दुसह नहीं यह कल सा..’ और ‘पृथ्वी हमारी’ काफी सराही गयीं.

कवि गोष्ठी में कवि सुरेंद्र सिंह ‘सुरेंद्र’ ने ‘प्यार’ शीर्षक से अपनी कविता सुनाते हुए कहा, ‘बिगड़े हुए संसार की बुनिया हिला दो, न चाहिए नफरत की जहां, सबको बता दो. हम प्यार के राही हैं, मदमस्त काफिला, जो साथ-साथ चल सके, उन सबका पता दो.. इस धरती मां के जब हैं संतान हम सभी, क्यों दूर-दूर हो गये, जो पास थे कभी.

क्यों जाति, धर्म, और रंग-भेद यहां पे, अपने हैं सभी लोग, अपनों से मिला दो.’ श्री सुरेंद्र की इस कविता ने खूब वाहवाही बटोरी. खूब तालियां भी बजीं.

उन्होंने सुनाया, ‘ये जमीन अपनी है, आसमान अपना है, गोल-गोल रोटी तो मेरे लिए सपना है. मेरा न गांव कहीं, छप्पर न छांव कहीं. जेठ माह तपना है, माघ-पूस कंपना है. गोल-गोल रोटी तो मेरे लिए सपना है.’ ये पंक्तियां उनकी ‘भिक्षुक का दर्द’ नामक कविता से हैं, जो उन्होंने महाकवि निराला से प्रेरित होकर रची हैं. श्री सुरेंद्र की इन पंक्तियों पर लोग भाव-विभोर हो गये.

मगही साहित्यिक पत्रिका टोला-टाली के संपादक सुमंत ने एड्स दिवस (एक दिसंबर) के मद्देनजर आमलोगों को इस गंभीर जानलेवा बीमारी से सावधान करती एक रचना सुनायी.

डॉ राधानंद सिंह ने आज के मौजूदा दौर को प्रतिबिंबित करतीं दो मिथकीय कविताएं सुनायीं. ‘राष्ट्र जब धृतराष्ट्र हो जाता है, तो शासन दुशासन हो जाता है.

अट्टालिका पर बैठी द्रौपदी जब-जब अट्ठहास करती है, तो जल थल हो जाता है और थल जल हो जाता है’ और ‘सोने का मृग मारता छलांग. प्रजा त्रस्त, राजा विदेह. सोने से सीता हुई, मिल गये राम, छोड़ा धन, राज प्रासाद, स्वर्ण, जंगल में भी मंगल सुकाम, सोने का मृग मारता छलांग’ जैसी पंक्तियां डॉ सिंह की दोनों कविताओं से हैं.

उन्होंने बेहद ओजपूर्ण ढंग से अपनी कविताएं पेश कीं. इन्हें कविताप्रेमियों ने पूरी गंभीरता के साथ सुना.

कवि गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे साहित्यकार गोवर्धन प्रसाद सदय ने कविताप्रेमियों के आग्रह पर अपनी कविता ‘ताजमहल’ को सुना कर श्रोताओं को मुग्ध कर दिया. सभी वाह-वाह कर रहे थे. उन्होंने अपनी एक मगही रचना भी पेश, जो काफी सराही गयी. साहित्यकार रामकृष्ण ने श्रृंगार रस की अपनी एक कविता से ‘यह ऋचा है शाम की..’ के साथ ही दो अन्य कविताओं की भी लयबद्ध प्रस्तुति कर सबको मुग्ध कर दिया. उनसे ‘जिधर नजर जाती है, उधर गजब नजारा लगता है’ सुन कर श्रोताओं ने तालियों की गड़गड़ाहट से उनका अभिनंदन किया.

रामावतार सिंह ने भी ‘मंगल ध्वनि’ नामक अपनी रचना पेश कर सबको अभिभूत कर दिया. श्री सिंह ने गया धाम की महत्ता को रेखांकित करती एक कविता भी पढ़ी. कार्यक्रम में डॉ मुनि किशोर सिंह, डॉ पप्पु तरुण और प्रभात खबर के स्थानीय संपादक कौशल किशोर त्रिवेदी ने भी भाग लिया. सुरेश नारायण ने कार्यक्रम में शिरकत कर रहे एक-एक व्यक्ति के प्रति आभार प्रकट किया.

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