भागलपुर : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय. भागलपुर को विश्व भर में उम्दा पहचान दिलाने में जिस शरत ने खूब कलम चलायी, आज उनकी दवात की टूटी पेंदी से स्याही रिस रही है, जो उनके ननिहाल में आज भी अनमोल धन के रूप में सहेज कर रखी हुई है. बाबू मोशाय…कुछ रांगे ला दो और पेंदी के छेदों को भर दो. शायद शरत की आत्मा इस दवात को देख कर कुछ इसी तरह भागलपुर से अनुनय कर रही होगी.
यह स्थिति सिर्फ दवात के साथ नहीं है. शरत का ननिहाल देखने के लिए देश भर से आनेवाले लोगों को हम ऐसा कुछ भी नहीं दिखा पाते, जिससे यह लगे कि हमने शरत के लिए कुछ भी किया हो. दीपप्रभा सिनेमा हॉल के बगल से गंगा घाट की ओर जानेवाली सड़कों पर स्थित जिस ननिहाल में रह कर शरत ने प्रवेशिका तक की शिक्षा प्राप्त की, वहां जाने पर आज तनिक भी यह अनुभूति नहीं होती है कि यह किसी सुप्रसिद्ध उपन्यासकार की गली है.
वर्ष 2011 में एक अक्तूबर को भाषा कृष्टिर मिलन मेला की ओर से शरतचंद्र द्वार के लिए दीपप्रभा सिनेमा हॉल के बगल में शिलान्यास कराया गया था. पांच वर्ष बीत चुके, द्वार तो नहीं बना और कोई यह पूछने भी नहीं आया कि किस कमी की वजह से द्वार नहीं बन पाया है.शरतचंद्र के बारे में यह बताने की जरूरत नहीं कि इनके लिखे उपन्यास देवदास पर अब तक तीन बार फिल्में बन चुकी हैं और वो भी कई भाषाओं में. चरित्रहीन,
परिणीता जैसे उपन्यास की कहानी पर भी फिल्मों ने खूब चर्चा बटोरी. हर साल देश भर से कई नामचीन लोग उनके ननिहाल पहुंच कर शरत के बारे में आज भी यह पूछते हैं कि वे यहां कब तक रहे. लेकिन ऐसे लोग जाते-जाते यह कह जाते हैं कि उन्हें यहां तक पहुंचने में काफी परेशानी हुई. रेलवे स्टेशन पर एक बोर्ड तो होना ही चाहिए, जिससे लोग यह जान सके कि शरतचंद्र का ननिहाल का रास्ता किधर से है.
फिल्म निर्देशक जयंतो साहा ‘बालक शरतचंद्र’ बांग्ला फिल्म का निर्माण नहीं कर पाते, अगर वे भागलपुर नहीं आते. इस फिल्म का महत्वपूर्ण भाग भागलपुर में शूट किया गया है. आवारा मसीहा पुस्तक की कहानी पूरी करने के लिए प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर को भी शरत का ननिहाल आना पड़ा था.
शरतचंद्र को जानने के लिए बांग्ला की प्रसिद्ध लेखिका आशा पूर्णा देवी, फिल्म निर्देशक तपन सिन्हा, शरत की कुछ अधूरी पुस्तकों को पूरा करनेवाली राधा रानी देवी, प्रसिद्ध पेंटर रेवोती भूषण जैसी शख्सीयत शरत का ननिहाल पहुंच चुकी हैं. इस तरह की शख्सीयतों का भागलपुर आना जारी है. लेकिन हम उन्हें भागलपुर में ऐसा कुछ नहीं दिखा पाते, जिससे लगे कि हमने शरतचंद्र को कुछ खास सम्मान दिया हो. शरतचंद्र के मामा सुरेंद्र नाथ गांगुली के पोते शांतनु गांगुली बताते हैं
कि 15 सितंबर 1876 में बंगाल के हुगली जिले के देवानंदपुर गांव में जनमे शरतचंद्र दो-तीन साल तक ही अपने गांव में रहे. उनके पिता मोती लाल चट्टोपाध्याय की आर्थिक स्थिति खराब हो जाने के बाद वे शरत व उनकी मां भुवन मोहिनी देवी को लेकर अपने ससुराल भागलपुर आ गये. शरतचंद्र ने अपने ननिहाल के बगल में स्थित दुर्गाचरण प्राथमिक विद्यालय से पढ़ाई पूरी करने के बाद टीएनबी कॉलेजिएट से प्रवेशिका तक की शिक्षा प्राप्त की.
वे काफी शरारती थे और बगैर किसी को बताये रात में गंगा में मछली मारने के लिए दोस्तों के साथ निकल जाते थे. पढ़ाई पूरी करने के बाद वे बंगाल चले गये. लेकिन ननिहाल से उनका इस तरह का दिली जुड़ाव था कि हर बार छठ में आते थे और ननिहाल में होनेवाली जगधात्री पूजा (आज भी धूमधाम से होती है) के बाद लौट जाते थे.
श्री गांगुली बताते हैं कि भागलपुर में शरतचंद्र की याद में शहर में एक भी संग्रहालय नहीं है. उन्होंने बताया कि तत्कालीन सांसद शाहनवाज हुसैन से टाउन हॉल में एक पुस्तकालय निर्माण कराने का अनुरोध किया गया था. लेकिन निर्माण नहीं हो सका. घंटाघर चौक के समीप शरतचंद्र की प्रतिमा स्थापित करने की बात हुई थी, लेकिन बाद में कुछ नहीं हुआ. उनके घर पर बाहर से आनेवाले लोग कहते हैं कि रेलवे स्टेशन पर शरतचंद्र के ननिहाल आने का रास्ता बतानेवाला एक बोर्ड होता, तो उन्हें आने में परेशानी नहीं होती.
शरतचंद्र के नाम कोई संग्रहालय भी नहीं