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उत्पादन दो लाख एमटी खपत 10 फीसदी से भी कम
भागलपुर जिले में गेहूं से ज्यादा मक्के का उत्पादन होता है. यहां लगभग 40 हजार हेक्टेयर जमीन में मक्के की खेती होती है. लगभग दो लाख मीट्रिक टन इसका उत्पादन है, जबकि गेहूं का उत्पादन 1.35 लाख मीट्रिक टन के आसपास है. इसके बाद भी खाद्य प्रसंस्करण की बड़ी यूनिट नहीं होने के कारण इसकी […]
भागलपुर जिले में गेहूं से ज्यादा मक्के का उत्पादन होता है. यहां लगभग 40 हजार हेक्टेयर जमीन में मक्के की खेती होती है. लगभग दो लाख मीट्रिक टन इसका उत्पादन है, जबकि गेहूं का उत्पादन 1.35 लाख मीट्रिक टन के आसपास है. इसके बाद भी खाद्य प्रसंस्करण की बड़ी यूनिट नहीं होने के कारण इसकी स्थानीय खपत 10 प्रतिशत से भी कम है.
इस कारण ज्यादातर मक्का बाहर भेजा जाता है. नवगछिया बेल्ट में 1990 के पहले मक्के की इतने बड़े पैमाने पर खेती नहीं होती थी. मुख्य रूप से खरीफ के मौसम में किसान मक्का लगाते थे.
तब मुख्य फसल गेहूं थी. हाइब्रिड बीज के आने के बाद किसानों को ज्यादा उत्पादन और मुनाफा हुआ. इस नकदी फसल की रबी और खरीफ दोनों मौसम में खेती हो रही है. किसानों को गेहूं के मुकाबले मक्के के उत्पादन को लेकर ज्यादा भरोसा है. किसान प्रीतम साहू बताते हैं कि मक्के के उत्पादन की गारंटी है. इसकी ‘धन सिसरी’ से लेकर ‘भुट्ठी’ और डंठल तक का उपयोग हो जाता है.
आम के आम, गुठली के दाम : मक्के के अलावा भुट्ठी (दाने निकालने के बाद भुट्टे का बचा हिस्सा) के भी दाम किसानों को मिल रहे हैं. आमतौर पर गांव-घर में इसे जलावन के काम में लाया जाता है, लेकिन भागलपुर बेल्ट में किसानों को चार से पांच रुपये प्रति किलो की दर से इसकी भी कीमत मिल रही है. इसका इस्तेमाल पशुओं के आहार और कुरमुरे बिस्कुट में हो रहा है. मक्के और जा के मुकाबले यह सस्ता पड़ता है.
नहीं है मंडी, सरकारी खरीद भी नहीं : पूर्णिया के गुलाबबाग को छोड़ कर भागलपुर, बेगूसराय, कटिहार और खगड़िया बेल्ट में अनाज की एक भी बड़ी मंडी नहीं है. मक्के की सरकारी खरीद भी नहीं हो रही है.
वर्ष 2014-15 में केंद्र सरकार ने बिहार में मक्के की खरीद की घोषणा की, मगर लक्ष्य तय नहीं हो सका और पूरे राज्य में महज सात हजार मीट्रिक टन मक्के की खरीद के बाद योजना को रोक दिया गया. जिले के ज्यादातर किसानों को इस योजना और मक्के के समर्थन मूल्य तक की जानकारी नहीं हुई. लिहाजा समर्थन मूल्य 1310 रुपये होने के बावजूद किसान साहुकारों और बिचौलियों को 900 से 1000 रुपये प्रति क्विंटल की उर से मक्का बेचने को मजबूर हुए. इस क्षेत्र में मंडी को लेकर सरकारी तौर पर कोई पहल अब तक नहीं हुई है.
मक्का हमारा, इंडस्ट्री चल रही दूसरों की : भागलपुर बेल्ट के मक्के से पश्चिम बंगाल, हरियाणा और गुजरात जैसे राज्यों में खाद्य प्रसंस्करण का कारोबार चल रहा है. मानसी, नवगछिया और कुरसेला में यहां के मक्के के लिए रेलवे रैक लगते हैं. देश की करीब दस ऐसी एजेंसियां हैं, जो यहां के मक्के को बाहर ले जाती हैं.
बिहार से सटे मालदा में दो और दालकोला में एक स्टार्च फैक्टरी हैं. पश्चिम बंगाल में मुरगी का दाना बनानेवाली करीब 25 कंपनियां हैं. इन सब को यहां से मक्का मिलता है.
ऊपर मकान, नीचे गोदाम : बेंगलुरु से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर खेती में लगे साहू परबत्ता के प्रगतिशील और बड़ी जोत के किसान नीरज साहू कहते हैं कि किसानों के लिए सरकार को ऊपर मकान-नीचे गोदाम का कंसेप्ट डेवलप करना चाहिए. इसके बदले किसानों की बाकी योजनाओं को सरकार वापस ले ले, तो भी किसानों को लाभ है. आज सबसे बड़ी समस्या अनाज के निजी भंडारण व्यवस्था की कमी है. सरकारी और व्यावसायिक गोदाम साहूकारों के कब्जे में हैं. इनका लाभ सामान्य और छोटे किसानों को नहीं है.
किसानों को आवास से ज्यादा जरूरत गोदाम की है. भंडारण सुविधा नहीं रहने के कारण किसान की उपज की कीमत साहुकार तय करते हैं और किसान औने-पौने दाम में अपना अनाज उन्हें बेच रहे हैं. सीजन के बाद उन्हें वही अनाज सवा से डेढ़ गुणा ज्यादा दाम पर खरीदना पड़ रहा है. अधिक उत्पादन का लाभ बिचौलियों और साहुकारों को ज्यादा है, किसानों को नहीं.
मक्का से बनती हैं कई चीजें : मकई के दाने में 55 से 66 प्रतिशत तक स्टार्च पाया जाता है. इससे खाने के तेल, बिस्कुट, आटा, सूजी, पॉपकॉर्न, कॉर्न फ्लेक्स, केक जैसी खाने की चीजें बनती हैं. पशु आहार, मुरगी का चारा भी बनता है.
शराब, जीवन रक्षक दवा, डेक्सट्रोज, एंटीबायोटिक, पेनिसिलिन, विटामिन -सी, क्लूकोज, एक्ट्रोज, चिकने-चमकीले तथा सिगरेट उद्योग में कम धुआं देनेवाले महीन कागज आदि इससे बनते हैं. इसके तने से सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री, कूट तथा दवाइयां बनती हैं. इसकी भुट्टी का इस्तेमाल कुरमुरे बिस्कुट तथा मुरगी का चारा और पशु आहार बनाने में होता है.
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