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बदहाल है मंसूरचक के मूर्तिकारों की जिंदगी

मंसूरचक : सरकारी सहायता नहीं मिलने से मंसूरचक के मूर्तिकारों की जिंदगी बदहाल होती जा रही है. पूंजी का अभाव, महंगी मिट्टी, बाजार की कमी,प्लास्टिक उद्योग के बढ़ते प्रभाव व सरकारी सहयोग नहीं मिलने के कारण मंसूरचक की प्रसिद्ध मूतिॅ निर्माण कला की दो सौ वर्ष पुरानी परंपरा दम तोड़ रही है. बच्चों के लिए […]

मंसूरचक : सरकारी सहायता नहीं मिलने से मंसूरचक के मूर्तिकारों की जिंदगी बदहाल होती जा रही है. पूंजी का अभाव, महंगी मिट्टी, बाजार की कमी,प्लास्टिक उद्योग के बढ़ते प्रभाव व सरकारी सहयोग नहीं मिलने के कारण मंसूरचक की प्रसिद्ध मूतिॅ निर्माण कला की दो सौ वर्ष पुरानी परंपरा दम तोड़ रही है. बच्चों के लिए तरह-तरह मुखौटा बनाने वाले मूर्तिकार आज बदहाली की स्थिति में हैं. सरकारी उपेक्षा के कारण इस पेशे से जुड़े अधिकतर लोग अब पलायन करने लगे हैं.

मूर्तिकारों का केंद्र है मंसूरचक : जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर उत्तर पश्चिम दिशा में स्थित मंसूरचक प्रखंड मूर्तिकारों का केंद्र हुआ करता था. वहां के कारीगरों को मिट्टी से विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्ति बनाने में महारथ हासिल है. मूर्तिकारों के जीविकोपार्जन का मात्र एक साधन मूर्ति निर्माण कार्य ही है.
यहां के कुशल कारीगरों द्वारा निर्मित मूर्ति, खिलौने बिहार के बाहर कई दूसरे प्रदेशों तक भेजे जाते थे. मंसूरचक के मूर्तिकारों की पहचान बिहार के अलावा महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल आदि स्थानों में भी है. मिट्टी से निर्मित गणेश-लक्ष्मी, शंकर,पार्वती, सरस्वती, दुर्गा, काली, राम-जानकी, छठ माता की मूर्ति के अलावा तरह -तरह के खिलौने व मुखौटे की मांग विशेष अवसर पर ज्यादा हुआ करती थी.
कारीगरों को सम्मान के साथ अच्छा पारिश्रमिक भी मिलता था. 80 वर्षीय मूर्तिकार जीवछी देवी बताती हैं कि उनके पूर्वजों ने मिट्टी के घरेलू उपयोग में आने वाली सामान के अतिरिक्त मूर्ति, खिलौने व मुखौटे बनाने की शुरु आत की. यहां निर्मित मूर्ति की बहुत मांग थी. सुंदर व आकर्षक मूर्ति खरीदने के लिए दूसरे शहर बंगाल, लखनऊ, कश्मीर,नेपाल के व्यापारियों का यहां तांता लगा रहता था.
कई शहरों के थोक व्यापारी मूिर्त खरीदने पहुंचते थे
कई महानगरों के थोक व्यापारी मूर्ति खरीद कर कारोबार के लिए यहां से खरीद कर ले जाते थे. लेकिन अब प्लास्टिक से बनी मूर्तियां , खिलौने मुखौटे ने इस घरेलू उद्योग की कमर तोड़ दी है. साथ ही सरकार से कोई सहयोग यहां के कारीगरों को नहीं मिला जिससे इन लोगों में हताशा का भाव है.
52 वर्षीय अशीक लाल पंडित बताते हैं कि विरासत में मिली कला को किसी तरह संजोये हुए हैं दूसरा कोई विकल्प नहीं हैं .उतनी ही आमद होती है जिससे सालो भर भोजन कर पाते हैं, ऊंची दाम में मिट्टी, धान का पुआर गांव के महाजनों से कर्ज लेकर खरीदना पड़ता है.
फिर दुर्गापूजा, सरस्वती, लक्ष्मी, गणेश पूजा के समय आमद कर महाजनों का कर्ज को पूरा करते हैं. 30 वर्षीय अशोक पंडित बताते है कि मूर्ति, खिलौने व मुखौटे बनाने के लिए अधिक कीमत पर मिट्टी, बांस व धान का पुआल खरीदना पड़ता है. 45वर्षीय मीना देवी बताती हैं कि पैसे के अभाव में बच्चों को समुचित शिक्षा भी नहीं दे पायी. 20 वर्षीय रामदयाल पंडित बताते हैं कि पूंजी के अभाव में मूर्ति की मांग को अभी भी पूरा करने विफल हैं.

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