बौंसी: मेला आज भले ही मंदार महोत्सव के नाम से जाना जा रहा हो और इसे राजकीय मेले का दर्जा भी मिल गया है, लेकिन 70 के दशक में यह मेला अपने परवान पर था. उस वक्त यहां पर सात दिनों के लिए एसडीओ कोर्ट मेला परिसर में ही लगता था. डंटी वाला दिया और बैरचूर यहां सबसे ज्यादा विकता था. सुरक्षा के नाम पर सिर्फ लाठी वाले बल की तैनाती होती थी.
बौंसी: आज भले ही बौंसी मेले को राजकीय मेले का दर्जा मिल गया हो, लेकिन अब भी कई बूढ़े और पुराने लोग है जो 70 की दशक के बौंसी मेले को याद करते है. लोगों का कहना है कि बौंसी मेला इतना आनंद दायी होता था कि लोग तीन से चार दिनों तक वहां रूक कर मेले का आनंद लेते थे, लेकिन अब वो बात कहां है. अब मेले में इतनी भीड़ रहती है कि हर वक्त भगदड़ होने का खतरा बना रहता है. बांका के दिवाकर झा का कहना है कि पहले मेला इतना भव्य होता था कि सात दिनों तक अनुमंडलाधिकारी का कोर्ट वहीं चला जाता था.
मेला परिसर में ही एसडीओ का इजलाश लगता था और सुनवाई होती थी. श्री झा के अनुसार उस वक्त मेले की सुरक्षा और कानून व्यवस्था के सबाल को लेकर एसडीओ सात दिनों से वहीं रहते थे. उस वक्त सरकारी मेला 15 दिनों का होता था. लाइटिंग के संबंध में श्री झा ने बताया कि उस वक्त मेले में इतने प्रकार की लाइटिंग नहीं होती थी गैस और फ्लाश के द्वारा पूरा मेला परिसर जगमग करता था.
उन्होंने बताया कि भेड़ा मोड़ से लेकर पूरे मेला परिसर तक बैलों की गाड़ी खड़ी रहती थी. उस पर टप्पर लगा रहता था. लोग उसी गाड़ी के समीप अपना भोजन पकाते व उसी टप्पर के नीचे अपना रात गुजराते थे. श्री झा ने बताया कि सुरक्षा के नाम पर सिर्फ लाठी वाला पुलिस ही तैनात रहता था. अब तो पुलिस कैंप भी लगता है फिर भी भगदड़ होती है. श्री झा ने बताया कि उस वक्त बौंसी मेले का पहचान डंटी वाला दिया और बैरचूर होता था. मेला घूमने आने वाले लोग ये दोनों चीज जरूर खरीदते थे.