औरंगाबाद सदर : ओबरा में निर्मित कालीन कभी राजा महाराजाओं की दरबार की शोभा बढ़ाते थे. वही इंग्लैंड की महारानी ने अपने राजमहल के लिए यहां से कालीन मंगवाई थी. हालांकि अब यह सारी बातें सिर्फ कहानी बन कर रह गयी और हकीकत है कि यहां की कालीन उद्योग अब दम तोड़ रही है. यहां के बुनकर अली मियां की कार्यकुशलता व दक्षता के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाजा गया था जो यह बताने के लिए काफी है कि यहां का कालीन उद्योग कितना समृद्ध था. फिलहाल स्थिति यह है
कि अपने स्वर्णिम इतिहास को संजोए हुए ओबरा का कालीन उद्योग अपने अस्तित्व की रक्षा करने में भी सक्षम नहीं है. वर्ष 1972 में बुनकर अली मियां को राष्ट्रपति द्वारा सम्मान देने के बाद भारत सरकार का ध्यान इस छोटे से कस्बे की ओर गया, जिसके बाद वर्ष 1974 में भारत सरकार के उद्योग मंत्रालय ने यहां प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना करायी. वर्ष 1986 में तत्कालीन जिला पदाधिकारी के निर्देशन में असंगठित कालीन बुनकरों को एक साथ संगठित करके पांच मार्च 1986 को महफिले ए कालीन बुनकर सहयोग समिति के रूप में निबंधित किया गया. वर्ष 1986 में ही डीआरडीए की आधारभूत संरचना कोष से प्राप्त 7 लाख रुपये से जिला परिषद के भूखंड पर संस्था का भवन खड़ा कराया
गया. पटना में 66 वर्ष के लिए लीज डीड पर शो रूम को लेकर पांच लाख 33 हजार रुपये खर्च किये गये, ताकि इस उद्योग को बाजार उपलब्ध हो सके. पर अबतक उसका विधिवत उदघाटन भी नहीं हो सका और उस बंद शोरूम में लाखों की सामग्री सड़ रही है. तत्कालीन जिलाधिकारी अरूनिश चावला ने छह लाख 31 हजार रुपये की परियोजना तैयार करवायी थी. जिसमें पांच लाख 21 हजार रुपये पटना शो रूम पर खर्च किये गये थे. वहीं 65 हजार रुपये का जेनेरेटर खरीदा गया था. शेष 15 हजार रुपये का पंखा खरीदा गया था. जो अबतक बेकार पड़े हैं. वर्ष 1991 में ट्रायसेम योजना के तहत यहां करीब 450 बुनकरों को प्रशिक्षण दिया गया किंतु यह वर्ष 1998 तक ही चला. इसके बाद संसाधनों के अभाव में उद्योग ने दम तोड़ दिया. वर्तमान में इसके लिए बाजार व कार्यशील पूंजी की कमी है जिससे बुनकरों के सामने रोटी के लाले पड़े हैं व बुनकर पलायन को मजबूर है.