मेडिकल वेस्ट यानी अस्पतालों, नर्सिग होम, क्लिनिकों और जांचघरों से निकलनेवाला कचरा. यह कचरा इंसानों और पर्यावरण दोनों के लिए बेहद खतरनाक है. इससे कई जानलेवा बीमारियां हो सकती हैं. हम अक्सर सड़क किनारे पड़े कचरे के संपर्क में जाने-अनजाने आ जाते हैं. ऐसे में जरूरत है हमें जागरूक होने की. कितना खतरनाक है मेडिकल वेस्ट और कैसे डाल रहा असर, आज से पढ़िए किस्तवार स्टोरी.
पटना: अस्पतालों, नर्सिग होम, क्लिनिकों और जांच घरों से निकलनेवाले कचरे से आप जानलेवा बीमारियों की चपेट में आ सकते हैं. इससे एचआइवी, हेपटाइटिस बी व सी जैसी संक्रामक बीमारियां भी हो सकती हैं. इस कचरे के रखरखाव, नष्ट करने और निगरानी का पूरा प्रोसेस तय है. चूक होने पर सजा का भी प्रावधान है. लेकिन, राजधानी पटना समेत पूरे बिहार में तसवीर भयावह है. बानगी देखनी हो, तो पीएमसीएच और एनएमसीएच चले जाइए.
प्राइवेट अस्पताल, नर्सिग होम भी पीछे नहीं : पूरे पटना में प्राइवेट अस्पताल, नर्सिग होम, क्लिनिकों और जांच घरों की भरमार है. कायदे-कानून का पूरा पालन करनेवाले शायद ही मिलें. ऐसे संस्थानों की कमी नहीं, जिनसे सटे रिहायशी इलाकों, सड़कों और सार्वजनिक जगहों पर सूई, ब्लेड जैसी पैनी चीजों का कचरा, ऑपरेशन से निकले मानव अंग, खून से सनी पट्टियां वगैरह बिखरी नहीं मिलेंगी. लोग इनके संपर्क में आते ही हैं. पूरे बिहार में ऐसी ही तसवीर है.
खतरा क्या है
मेडिकल कचरे के संपर्क में आने पर इंसान खतरनाक बीमारियों के शिकार हो सकते हैं. टाइफाइड, जांडिस, पेचिस, न्यूमोनिया, डायरिया, सेप्सिस, हेपटाइटिस बी व सी जैसी घातक बीमारियों का इन्फेक्शन इनसे हो सकता है. एचआइवी जैसे लाइलाज बीमारी के इन्फेक्शन का भी खतरा है. ऐसे कचरे को जब सामान्य कचरे के साथ रखा जाता है, तो कई घातक बीमारियों के जीवाणु बड़े पैमाने पर पैदा हो सकते हैं. इनके संपर्क में आनेवाले जानवर और मक्खियां भी बीमारियां फैलाती हैं. सबसे ज्यादा खतरा मरीजों, देखभाल करने वालों और कचरे का निपटारा करने वालों को है.
क्या होना चाहिए
सभी तरह के मेडिकल कचरे को 10 कैटिगरियों में रखा गया है. पीले, लाल, नीले या सफेद डब्बे में इन्हें इस्तेमाल के बाद डालना होता है. हर कैटिगरी के लिए डिब्बे का रंग तय है. इनके रखरखाव, कलेक्शन और निबटारे के तरीके तय हैं. ट्रीटमेंट प्लांट में इन्हें मशीन में जला कर, गर्म कर, काट कर या रसायनों में डाल कर इन्फेक्शन फ्री किया जाता है.
किसकी निगरानी
इसके रखरखाव और निबटारे के लिए सरकार ने कड़े कानून बनाये हैं. राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसकी देखरेख और नियामक का काम करता है. पूरे बिहार में अभी तीन साझा ट्रीटमेंट प्लांट हैं. पीएमसीएच का अपना प्लांट है. कलेक्शन और निबटारे का काम हर प्लांट के लिए अलग-अलग प्राइवेट एजेंसियों को दिया गया है. सरकारी अस्पतालों में इसके लिए फंडिंग और मॉनीटरिंग राज्य स्वास्थ्य समिति करती है.
डर नहीं
कानून के मुताबिक, साल 2002 तक सभी स्वास्थ्य संस्थानों को मेडिकल कचरे के रखरखाव और निबटारे के नियमों पर अमल शुरू कर देना था और खुद को निगरानी के दायरे में लाना था. लेकिन, बिहार के ज्यादातर क्लिनिकों, नर्सिग होम और प्राइवेट अस्पतालों, जांच घरों को इसकी परवाह नहीं है. अब तक बड़े पैमाने पर प्राइवेट संस्थानों ने बोर्ड से अथॉराइजेशन नहीं लिया है.
दिक्कत क्या है
एजेंसियों की शिकायत है कि ज्यादातर प्राइवेट संस्थान कचरा उठवाना नहीं चाहते. कलेक्शन से पहले ही कचरे को बिखेर दिया जाता है. प्रदूषण वैज्ञानिक डॉ नवीन कुमार के मुताबिक, कचरे को अलग करके तयशुदा बैग और डब्बे में न डालने से ही समस्या की शुरुआत होती है. बिहार आइएमए के अध्यक्ष डॉ राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि मेडिकल कचरे के कलेक्शन और निबटारे का तंत्र अभी मच्योर नहीं है. पैसा चुकाने पर ही कचरा उठता है. लापरवाही, ट्रेनिंग और जागरूकता की कमी इसकी सबसे बड़ी वजह हैं.
पीएमसीएच
राजेंद्र सजिर्कल वार्ड के गेट पर ही पोर्टिको में बेंच पर इस्तेमाल की गयी सीरिंजें व निड्ल्स बिखरी मिलेंगी. वहीं मरीजों के तीमारदार बैठते भी हैं. वार्ड के गलियारे में गंदे व खुले डिब्बे में कचरा भरा मिलेगा. वार्ड से सटे रिहायशी क्वॉर्टर हैं. वहां सीरिंज, सेलाइन वाटर व दवा की बेकार बोतलें, खून और मवाद से सनी पट्टियों का ढेर. पास में बच्चे खेलते हैं. कुत्ते मौज करते हैं. वार्ड के पिछवारे तो ढेर ही लगा है. कमोबेश ऐसी ही तसवीर अस्पताल में मिलेगी.
एनएमसीएच
घुसते ही पैथोलॉजिकल वार्ड के प्रवेश द्वार पर खून से सनी पट्टियों, स्लाइन वाटर सेट और इस्तेमाल सीरिंजों से भरे बड़े गंदे डब्बे के दर्शन होते हैं. कुत्ता उसमें मुंह मार रहा होता है. इमरजेंसी वॉर्ड के गलियारें में ऐसा ही डब्बा. मरीजों के बिस्तरों के नीचे भी सीरिंजें और खाली बोतलें. सीढ़ियों के पीछे कचरा और बेकार दवाएं. बुरा हाल है.