इंटरनेट पर सर्च करने पर पढ़ने को मिलेगा – गांधी मैदान यानी पटना की शान. इसे पढ़ कर जब आप गांधी मैदान जायेंगे, तो सबसे पहले आपको उसमें प्रवेश करने का रास्ता खोजना मुश्किल हो जायेगा. कहने को चार गेट हैं, पर ज्यादातर के सामने गंदगी रहती है या फिर बंद रहते हैं. पूरा चक्कर लगाने पर एक रास्ता दिखेगा, जो शौचालय के पास से होकर, ऑटो के शोर, खोमचों के बीच से गुजरता है. जब अंदर घुसेंगे, तो सामने उड़ती धूल, घूमते आवारा पशु और शराब पीते या उद्दंडता करते कुछ लोग दिखेंगे. सोचिए, ये नजारे क्या छवि बनाते हैं आपके मन में गांधी मैदान, बिहार और पटना के बारे में. बाहर से आनेवाले सैकड़ों पर्यटक रोज इसी का सामना करते हैं. जरूरी है कि गांधी, जेपी के चरणों से पवित्र हुई भूमि को इतना खूबसूरत बनाया जाये और सहेज कर रखें कि देशभर में यह एक मिसाल बन जाये.
क्यों जरूरी है इसका संरक्षण
पटना ही नहीं, पूरे राज्य में इससे बड़ा कोई मैदान नहीं है. यह राजधानी के मध्य में है. यह सुंदर बनेगा, तो देश-विदेश के पर्यटक यहां आयेंगे. वे इसकी चर्चा भी बाहर जाकर करेंगे. यह पटना का दर्शनीय स्थल होगा.
कई ऐतिहासिक क्षण का गवाह रहा है गांधी मैदान. जरूरी है कि इस धरोहर को और विकसित किया जाये, ताकि नयी पीढ़ी जान सके कि यहां आजादी के तराने गूंजे थे और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की शुरूआत हुई थी.
पटना में फुरसत के क्षण बिताने के लिए इको पार्क को छोड़ कर कोई अन्य खुली जगह नहीं है. गांधी मैदान विकसित होगा, तो लोग परिवार के साथ यहां बैठ कर कुछ क्षण बितायेंगे.
गांधी मैदान के आस-पास के इलाके को अतिक्रमण से मुक्त और साफ-सुथरा बनाना जरूरी, क्योंकि इससे शहर की गरिमा जुड़ी है. अभी तो बाहर से आने वाले लोग इधर से गुजरते हैं, रुकते नहीं
क्योंकि इसी मैदान ने दिखायी देश को राह
कभी रैली, तो कभी मेला. हर रैली के बाद मैदान में चारो तरफ कूड़ा-कचरा का फैलना तय. धरना-जुलूस के लिए इकट्ठा होना हो, तो आ जाइए गांधी मैदान. पश्चिमी छोर साफ-सुथरा तो पूर्वी-दक्षिण के कोने पर गंदगी. बच्चे खेलते हैं, तो चलिए ठीक है, लेकिन इस मैदान को आवारागर्दी का अड्डा तो नहीं बनना चाहिए. रात हुई नहीं कि गांधी मूर्ति को छोड़ कर बाकी हिस्सा अंधेरे में. फिर तो आप मैदान को पैदल पार करने में भी डरेंगे.
पटना: अंगरेजों के जमाने में यह रेसकोर्समैदान हुआ करता था. ब्रिटिश सरकार के अफसर यहां पोलो खेलते थे. 1813 से 1833 तक पटना के क मिश्नर रहे मेटकॉफ ने इसे पोलो खेल के लिए उपयुक्त माना था. इसी समय से अंग्रेज अफसर और उनके बच्चे यहां पोलो खेलने लगे. पुराने वाशिंदे इसे बांकीपुर और डोरंडा सिंह मैदान के नाम से जानते थे. 1940 के दशक में महात्मा गांधी पटना आते, तो सामने के घर में ठहरते और सुबह-शाम प्रार्थना व भजन करते थे. भजन-कीर्तन में लोग जुटने लगे. इसके बाद लोग इसे गांधी मैदान के नाम से ही जानने लगे. 1970 के दशक में इसे लॉन भी कहा गया. गांधी, जिन्ना, नेता जी सुभाष चंद्र बोस, लोहिया और जेपी जैसी राजनीतिक हस्तियों के गजर्न का गवाह रहा गांधी मैदान सिर्फ नाम का मैदान रह गया है.
सुंदर बनाने का अभियान भी चला
सरकार ने दिसंबर, 2010 में गांधी मैदान के सौंदर्यीकरण की योजना बनायी. मार्च 2011 में काम आरंभ हुआ. मैदान की चाहरदीवारी ऊंची की गयी. सुबह की सैर के लिए आने वाले लोगों के लिए टाइल्स लगे. सुबह की सैर के लिए ट्रैक बनाये गये. शाम में मैदान में आने वाले लोगों के बैठने की जगह बनायी गयी. कचरा फेंकने के लिए अलग से डस्टबीन बनाये गये. इस पर साढ़े आठ करोड़ रुपये खर्च किया जाना था. चाहरदीवारी और पाथ वे के बीच वाले भाग को पार्क और प्ले जोन के रूप में विकसित किया जाना है. इस भाग में तरह-तरह के सुंदर फूल, मखमली घास लगाये जाने हैं. बच्चों के लिए झूला और मैदान के चारों ओर रोशनी की योजना है. पाथ वे, पार्क, बाउंड्री व बीच के हिस्से में आकर्षक लैंप लगाये जाने हैं. लेकिन, अबतक अधिकतर योजनाएं जमीन पर नहीं उतर पायी हैं. महात्मा गांधी की सबसे ऊंची मूर्ति यहीं लगायी गयी है. देशी-विदेशी पर्यटक इसे देखने आते हैं. लेकिन, मैदान के भीतर की अव्यवस्था से शहर की तसवीर खराब हो रही है.
रंगकर्म का भी रहा है केंद्र
गांधी मैदान जनता से सीधा संवाद करने वाले रंगकर्म का भी केंद्र रहा है. रंगकर्मियों ने इसे अपने अभियान के हिसाब से तीन हिस्सों में बांट रखा है. एक कोना सफदर हाशमी रंगभूमि के नाम से चर्चित है, जहां जनवरी के पहले सप्ताह में नुक्कड़ नाटकों का आयोजन होता है. एक कोना फमीश्वर नाथ रेणू की स्मृति में है, तो एक अन्य कोना भिखारी ठाकुर रंगभूमि के नाम से जाना जाता है.
तरह-तरह की रैलियां
12 फरवरी 1994 – कुर्मी चेतना रैली
18 मार्च 1994 – सामाजिक परिवर्तन रैली
18 मार्च 1996 – गरीब रैली
पांच मार्च 1997 – हल्ला बोल रैली
30 अप्रैल 2003 – लाठी रैली
15 अक्तूबर 2003 – देश बचाओ, बिहार बचाओ रैली
27 नवंबर 2004 – बिहार बचाओ, बिहार बनाओ रैली
30 नवंबर 2004 – जनसंकल्प रैली
31 दिसंबर 2004 – बसपा की रैली
दो अप्रैल 2007 – एनसीपी की रैली
छह फरवरी 2008 – बसपा की रैली – यूपी की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती हेलीकॉप्टर से सीधे गांधी मैदान उतरीं.
30 मार्च 2010 – जन अधिकार रैली
13 जून 2010 – भाजपा की रैली
21 नवंबर 2011 – भ्रष्टाचार मिटाओ, लोकतंत्र बचाओ रैली
4 नवंबर, 2012 – जद यू की बिहार अधिकार रैली
30 जनवरी 2012- अन्ना हजारे की जनतंत्र रैली
27 अक्तूबर 2013 – भाजपा की हुंकार रैली.
.. और बम विस्फोट की दहशत भी ङोली गांधी मैदान ने27 अक्तूबर, 2013 को नरेंद्र मोदी की हुंकार रैली के दौरान यहां बम विस्फोट हुआ. दहशतगर्दो ने अशांति फैलाने की साजिश रची थी, जिसे शांतिप्रिय लोगों ने नाकाम कर दिया. इस घटना के बाद सरकार ने इसके आवंटन और सुरक्षा के नये प्रावधान को लागू कर दिया है. एक उच्चस्तरीय कमेटी गठित की गयी है. कमेटी की अनुशंसा पर ही किसी भी काम के लिए मैदान का आवंटन किया जा सकता है.
सोचिए
क्या धरना-प्रदर्शन और रैली कहीं दूसरी जगह नहीं हो सकती है
व्यावसायिक हित के लिए इसका इस्तेमाल क्यों होना चाहिए
क्या गांधी मैदान को रात में भी घूमने-फिरने लायक नहीं बनाया जा सकता
यदि यह हरा-भरा होगा तो कितना अच्छा लगेगा
तब लोग गांधी जी की प्रतिमा के नीचे बैठ कर कुछ क्षण भी बितायेंगे