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क्षेत्ररक्षण करते हुए डीआरएस में फिसड्डी साबित हो रही भारतीय टीम

नयी दिल्ली : क्या भारत निर्णय समीक्षा प्रणाली (डीआरएस) का सही उपयोग करने में नाकाम रहा है? अगर पिछले साल इंग्लैंड के खिलाफ श्रृंखला से लेकर अब तक के आंकडों पर गौर करें तो इसका जवाब हां होगा क्योंकि विराट कोहली की टीम को विशेषकर क्षेत्ररक्षण करते समय अक्सर ‘तीसरी आंख’ की पैनी निगाह से […]

नयी दिल्ली : क्या भारत निर्णय समीक्षा प्रणाली (डीआरएस) का सही उपयोग करने में नाकाम रहा है? अगर पिछले साल इंग्लैंड के खिलाफ श्रृंखला से लेकर अब तक के आंकडों पर गौर करें तो इसका जवाब हां होगा क्योंकि विराट कोहली की टीम को विशेषकर क्षेत्ररक्षण करते समय अक्सर ‘तीसरी आंख’ की पैनी निगाह से बोल्ड होना पड़ा.

भारत लंबे समय डीआरएस का विरोध करता रहा लेकिन पिछले साल इंग्लैंड के खिलाफ पांच टेस्ट मैचों की श्रृंखला से वह ट्रायल के तौर पर इसे आजमाने के लिये तैयार हो गया और तब से सभी टेस्ट मैचों में यह प्रणाली अपनायी गयी. भारतीय खिलाडियों की इस प्रणाली को लेकर अनुभवहीनता हालांकि खुलकर सामने आयी है.

डीआरएस अपनाने के बाद भारत ने अब तक जो सात टेस्ट मैच खेले हैं उनमें बल्लेबाजी करते हुए कुल 13 बार मैदानी अंपायर के फैसले को चुनौती दी लेकिन इनमें से केवल चार बार वह फैसला पलटने में सफल रहा. क्षेत्ररक्षण करते समय भारतीय टीम ने कुल 42 बार डीआरएस का सहारा लिया लेकिन इनमें से सिर्फ दस अवसरों पर ही टीम को सफलता मिली. हर मैच में पहले 80 ओवर तक प्रत्येक टीम को डीआरएस के दो अवसर मिलते हैं.
अगर वह इनमें सफल रहती है तो उसका अवसर कम नहीं होता लेकिन नाकाम रहने पर उसके अवसरों की संख्या घट जाती है. अक्सर देखा जाता है कि टीमें 70 से 80 ओवर के बीच इस प्रणाली का अधिक इस्तेमाल करती हैं क्योंकि बचे हुए मौके इसके बाद खत्म हो जाएंगे और दो नये अवसर इसमें जुड़ जाएंगे.
लेकिन भारतीय टीम ने क्षेत्ररक्षण करते समय केवल चार बार 70 और 80 ओवर के बीच डीआरएस लिये. क्षेत्ररक्षण के दौरान डीआरएस में भारत को सबसे अधिक सफलता बांग्लादेश के खिलाफ हैदराबाद में खेले एकमात्र टेस्ट मैच की दूसरी पारी में मिली थी. तब कोहली एंड कंपनी के तमीम इकबाल, शाकिब अल हसन और तास्किन अहमद के खिलाफ लिये गये रिव्यू सही रहे थे.
ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ चार टेस्ट मैचों के पुणे में खेले गये शुरुआती टेस्ट मैच में हालांकि भारतीय टीम को डीआरएस में नाकामी ही हाथ लगी. क्षेत्ररक्षण करते हुए उसने चार अवसरों पर रिव्यू लिया लेकिन सभी मौकों पर वह गलत साबित हुई. दूसरी तरफ ऑस्ट्रेलिया ने केवल एक बार रिव्यू लिया और उसमें भी वह सफल रहा.
बल्लेबाजी करते हुए ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों ने छह बार रिव्यू लिया जिसमें दो बार वे सफल रहे जबकि भारतीय बल्लेबाज तीन में से केवल एक बार (पहली पारी में रविंद्र जडेजा) ही सफल रहे. यहां तक कि भारत की दूसरी पारी में सलामी बल्लेबाज मुरली विजय और केएल राहुल ने छठे ओवर तक भारत के दोनों रिव्यू समाप्त कर दिये. वैसे इससे पहले भारतीय बल्लेबाजों को कुछ अवसरों पर रिव्यू का फायदा मिला.
इंग्लैंड के खिलाफ राजकोट में चेतेश्वर पुजारा जब 87 रन पर खेल रहे थे तब उन्हें पगबाधा आउट दे दिया गया था लेकिन उन्होंने डीआरएस का सहारा लिया और अंपायर क्रिस गफाने को अपना फैसला बदलना पड़ा. पुजारा ने इस पारी में शतक (124 रन) जड़ा.
इसी तरह से कप्तान कोहली बांग्लादेश के खिलाफ हैदराबाद में एकमात्र टेस्ट मैच के दौरान जब 180 रन पर थे तो वेस्टइंडीज के अंपायर जोएल विल्सन ने स्पिनर मेहदी हसन की गेंद पर उन्हें पगबाधा आउट दे दिया था. कोहली ने अपने साथी बल्लेबाज रिद्धिमान साहा से सलाह ली और उन्होंने अपने कप्तान को रिव्यू लेने के लिये कहा क्योंकि वह काफी आगे बढ़कर बल्लेबाजी कर रहे थे.
रिव्यू से पता चला कि गेंद लेग स्टंप को छोड़कर बाहर जा रही थी. अंपायर ने अपना फैसला बदला और कोहली ने इसके बाद 204 रन बनाये और लगातार चार टेस्ट श्रृंखलाओं में दोहरा शतक जड़ने वाले दुनिया के पहले बल्लेबाज बने. साहा ने बाद में कहा था, ‘‘मैंने उससे (कोहली) कहा कि वह गेंद खेलने के लिये आगे निकला था और गेंद टर्न हो रही थी. इसलिए उसने रिव्यू लिया और अंपायर ने अपना फैसला बदला.
दूसरी बार जब उसे आउट दिया गया तो मैंने उससे कहा कि गेंद आफ स्टंप से बाहर जा सकती है. हालांकि वह भी इसको लेकर सुनिश्चित नहीं था. इसलिए वह पवेलियन लौट गया और इस तरह से उसने टीम के लिये एक रिव्यू बचाने का फैसला किया. ”

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