एक आदमी जो ईश्वर में विश्वास करता है, वह ईश्वर को नहीं खोज सकता. ईश्वर एक अज्ञात अस्तित्व है और इतना अज्ञात कि हम ये भी नहीं कह सकते कि उसका अस्तित्व है. यदि आप वाकई किसी चीज को जानते हैं, वास्तविकता के प्रति खुलापन रखते हैं, तो उस पर विश्वास नहीं करते, जानना ही काफी है. यदि आप अज्ञात के प्रति खुले हैं, तो उसमें विश्वास जैसा कुछ होना अनावश्यक है.
विश्वास, आत्म-प्रक्षेपण का एक ही एक रूप होता है और केवल क्षुद्र मन वाले लोग ही ईश्वर में विश्वास करते हैं. आप अपने हीरो लड़ाकू विमान उड़ानेवालों का विश्वास देखिये, जब वह बम गिरा रहे होते हैं, तो कहते हैं कि ईश्वर उनके साथ है. तो आप ईश्वर में विश्वास करते हैं, जब लोगों पर बम गिरा रहे होते हैं, लोगों का शोषण कर रहे होते हैं. आप जी-तोड़ कोशिश करते हैं कि कहीं से भी या किसी भी तरह से अनाप-शनाप पैसा आ जाये. आपने भ्रष्टाचार, लूट खसोट से कोहराम मचा रखा है.
आप अपने देश की सेना पर अरबों-खरबों रुपये खर्च करते हैं और फिर आप कहते हैं कि आप में दया, सद्भाव है, दयालुता है, आप अहिंसा के पुजारी हैं. तो जब तक विश्वास है, अज्ञात के लिए कोई स्थान नहीं. वैसे भी आप अज्ञात के बारे में सोच नहीं सकते, क्योंकि अज्ञात तक विचारों की पहुंच नहीं होती. आपका मन अतीत से जन्मा है, वह कल का परिणाम है- क्या ऐसा बासा मन अज्ञात के प्रति खुला हो सकता है.
आपका मन, बासेपन का ही पर्याय है- बासापन ही है. यह केवल एक छवि प्रक्षेपित कर सकता है, लेकिन प्रक्षेपण कभी भी यथार्थ वास्तविकता नहीं होता. इसलिए विश्वास करनेवालों का ईश्वर वास्तविक ईश्वर नहीं है, बल्कि यह उनके अपने मन का प्रक्षेपण है. उनके मन द्वारा स्वांत:सुखाय गढ़ी गयी एक छवि है, रचना है.
यहां वास्तविकता में यथार्थ को जानना-समझना तभी हो सकता है, जब मन खुद की गतिविधियों, प्रक्रियाओं के बारे में समझ कर, एक अंत समाप्ति पर आ पहुंचे. जब मन पूर्णतः खाली हो जाता है, तभी वह अज्ञात को ग्रहण करने योग्य हो पाता है. मन तब तक खाली नहीं हो सकता, जब तक वह संबंधों के संजाल को नहीं समझता.
– जे कृष्णमूिर्त