शुद्धभक्त सदैव भगवान कृष्ण के विभिन्न रूपों में से किसी एक की भक्ति में लगा रहता है. भगवान कृष्ण के अनेक स्वांश तथा अवतार हैं. जिनमें से एक शुद्धभक्त उनके किसी एक रूप को चुन कर उसकी प्रेमाभक्ति में अपने मन को व्यापक रूप से स्थिर कर सकता है.
ऐसे शुद्धभक्त को उन अनेक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता है, जो अन्य योग के अभ्यासकर्ताओं को झेलनी पड़ती है. कृष्ण की भक्ति में रहते हुए भक्तियोग अत्यंत सरल, शुद्ध तथा सुगम है. इस भक्ति का शुभारंभ मात्र हरेकृष्ण जप से ही किया जा सकता है.
भगवान कृष्ण सब पर कृपालु हैं, सभी प्राणियों पर समान दया-दृष्टि रखते हैं. लेकिन, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जो भक्त अनन्य भाव से भगवान कृष्ण की सेवा करते हैं, भगवान उनके ऊपर विशेष रूप से कृपालु रहते हैं. कठोपनिषद् में कहा गया है कि जिस भक्त ने पूरी तरह से भगवान कृष्ण की शरण ले ली है और जो भक्त उनकी भक्ति में लगा हुआ है, वही भगवान कृष्ण को यथारूप में समझ सकता है. गीता में भी ऐसा ही कहा गया है- ऐसे भक्त को भगवान कृष्ण पर्याप्त बुद्धि प्रदान करते हैं; जिससे वह भक्त उन्हें भगवद्धाम में प्राप्त कर सके. शुद्धभक्त का सबसे बड़ा गुण यही है कि वह देश और काल का विचार किये बिना अनन्य भाव से भगवान कृष्ण का ही चिंतन करता रहता है. कुछ लोगों का कहना है कि भक्तों को वृंदावन जैसे पवित्र स्थानों में रहना चाहिए, किंतु भक्तियोग के अनुसान, शुद्धभक्त कहीं भी रह कर अपनी भक्ति से भक्ति का वातावरण उत्पन्न कर सकता है. चैतन्यचरितामृत में शुद्धभक्त को निष्काम कहा गया है. शुद्धभक्त किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करता. उसे ही पूर्ण शांति का लाभ होता है. उन्हें नहीं, जो स्वार्थ में लगे रहते हैं.
एक ओर जहां ज्ञानयोगी, कर्मयोगी या हठयोगी का अपना-अपना स्वार्थ रहता है, वहीं पूर्णभक्त में भगवान को प्रसन्न करने के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा नहीं होती. अत: भगवान कृष्ण कहते हैं कि जो भक्त एकनिष्ठ भाव से उनकी भक्ति में लगा रहता है, उसे वे सरलता से प्राप्त होते हैं. जिस भक्त ने स्वयं को भगवान कृष्ण की शरण में छोड़ दिया है, वही भक्त भगवान के यथारूप को आसानी से समझ सकता है.
– स्वामी प्रभुपाद