आषाढ़ पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा के रूप में मानने का क्या अर्थ है? धर्म जीवन को देखने का काव्यात्मक ढंग है. सारा धर्म एक महाकाव्य है. अगर यह तुम्हें खयाल में आये, तो आषाढ़ की पूर्णिमा बड़ी अर्थपूर्ण हो जायेगी. अन्यथा आषाढ़ में पूर्णिमा दिखायी भी न पड़ेगी. बादल घिरे होंगे.
तो प्रियमन! गुरु तो है पूर्णिमा जैसा और शिष्य है आषाढ़ जैसा. शिष्य जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाये हैं. वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं. उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है. इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है. और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है.
अगर तुम्हें यह समझ में आ जाये काव्य-प्रतीक, तो तुम आषाढ़ की तरह हो, अंधेरे बादल हो. न मालूम कितनी कामनाओं और वासनाओं का जल तुममें भरा है, और न मालूम कितने जन्मों-जन्मों के संस्कार लेकर तुम चल रहे हो. तुम्हारे अंधेरे से घिरे हृदय में रोशनी पहुंचानी है. इसलिए पूर्णिमा की जरूरत है! चांद को ही हमने गुरु के लिए चुना है. सूरज को चुन सकते थे, तथ्यगत होता, क्योंकि चांद के पास अपनी रोशनी नहीं है.
चांद की रोशनी उधार है. सूरज के पास अपनी रोशनी है. चांद पर तो सूरज की रोशनी का प्रतिफलन होता है. चांद तो केवल दर्पण का काम करता है, रोशनी सूरज की है. हमने गुरु को सूरज कहा होता, तो बात ज्यादा दिव्य और गरिमापूर्ण लगती. और सूरज के पास प्रकाश भी विराट है. चांद के पास प्रकाश बड़ा सीमित है. पर हमने सदियों तक सोचा है, तब हमने चांद को चुना है. इसके दो कारण हैं- एक, गुरु के पास भी रोशनी अपनी नहीं है, परमात्मा की है.
वह केवल प्रतिफलन है. वह जो दे रहा है, अपना नहीं है, वह केवल निमित्त मात्र है, वह केवल दर्पण है. तुम परमात्मा की तरफ सीधा नहीं देख पाते, सूरज की तरफ सीधे देखना भी बहुत मुश्किल है. प्रकाश की जगह आंखें अंधकार से भर जायेंगी. परमात्मा की तरफ भी सीधा देखना असंभव है. रोशनी बहुत ज्यादा है, तुम संभाल न पाओगे. तुम उसमें टूट जाओगे, खंडित हो जाओगे, विकसित न हो पाओगे.
– आचार्य रजनीश ओशो