-हरिवंश-
रिखिया आश्रम (देवघर) से लौटे लगभग 20 दिन हो गये. इस बीच जमशेदपुर-कोलकाता, फिर मुंबई-दिल्ली आना-जाना हुआ. पर रिखिया आश्रम की सात्विक परत नहीं उतरी. आश्रम रिखिया हो या रांची योगदा मठ, खींचते हैं. इन आश्रमों के माहौल-परिवेश में कुछ है, जो बांधता है. बुलाता है. और बहुत कुछ देता है, खुद को निहारने-परखने और आंकने के लिए.
रिखिया में देश-दुनिया के कोने-कोने से युवक-युवतियां और साधक, प्रवाह की तरह आते हैं. खुद खर्च कर. बार-बार सोचता हूं कि अब भीड़ तो सत्ता केंद्रों (नेता, मंत्री, उद्यमी, अपराधी वगैरह) के पास उमड़ती है. यहां क्यों पहुंचती है? बिन बुलाये. आश्रम में दो दिन रहने पर उत्तर मिलता है. स्वत:. आश्रम का अत्यंत सादा-सात्विक स्वादिष्ट भोजन नहीं बुलाता. आश्रम में न पंखा है, न कोई अतिरिक्त सुविधाएं. एकदम सामान्य अनुशासित जीवन. तड़के उठना, जल्दी सोना.
खाने-नाश्ते के समयबद्ध अलग नियम. सफाई, मुग्ध करनेवाली. पांच सितारा होटलों में भी वह सफाई-आकर्षण नहीं, जो आश्रम के अतिथिवासों में है. एक-एक चीज बिल्कुल ‘परफेक्शन’ के साथ अपनी जगह है. सफाई-कमरों के रख-रखाव में सादगीभरा सात्विक सौंदर्य है. पर पंखाविहीन इन कमरों की मुग्ध करनेवाली सफाई भी रिखिया नहीं बुलाती. हालांकि स्वामी सत्संगी जी से पूछता हूं कि यहां की सफाई का राज क्या है? वह काम और सेवा का अंतर बताती हैं. काम (ड्यूटी), बड़ी तनख्वाह, सुविधाओं वगैरह से संचालित होता है.
सेवा अंदर की स्वत: स्फूर्त प्रेरणा है. इसलिए इसमें ‘परफेक्शन और एक्सेलेंस’ (पूर्णता- श्रेष्ठता) अपने-आप आते हैं. नौकरी को सेवा मान कर कोई ‘इनवाल्व’ हो, तो स्वत: पूर्णता और श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है. मुझे स्मरण हो आता है, दुनिया के इस दौर की सबसे पापुलर विधा, ‘मैनेजमेंट’ का. मैनेजमेंट के टॉप एक्सपर्ट्स (विशेषज्ञ) ‘भगवतगीता’ के आधार पर मैनेजमेंट स्किल्स (प्रबंधकीय हुनर-कौशल) की श्रेष्ठ पुस्तकें लिख रहे हैं.
कृष्ण के उपदेश कर्म बनाम फल की व्याख्या कर रहे हैं. इस कर्म फल के रहस्य की झलक, रिखिया आश्रम की सफाई के संदर्भ में सत्संगी जी की बातों में मिलता है.रिखिया आश्रम के परिवेश में संवेदना, मानवीय आग्रह, स्वार्थहीन जीवन और मानवीय संबंध हैं. आश्रम के युवा-युवती और संन्यासी, बिना परिचय, प्रेमपूर्वक स्वागत करते हैं आश्रम, उम्मीद की…
विदेशी साधक और संन्यासी आत्मीयता से मिलते हैं. साथ रहते हैं. मानवीय संबंधों की जो उष्मा यहां मिलती है, शायद मानव समूह के सुखद भविष्य के बीज इसी में निहित हैं. जहां ठहरा हूं, देखता हूं, विदेश से आया एक पच्चीस वर्षीय युवक सफाई-पोंछा में लगा है. अपने काम में मग्न. अनेक युवक-युवतियां मिलते हैं, देश के भिन्न-भिन्न कोनों से आकर आश्रम में रह रहे हैं. काम कर रहे हैं. सफाई से लेकर तरह-तरह के काम. जीवन को अनुभव समृद्ध बनानेवाले काम. यहां कोई किसी से जाति, धर्म, देश, समुदाय नहीं पूछता. ग्लोबल बनती दुनिया में, जो नया ग्लोबल क्लास-मानव समूह उभर रहा है, इन्हीं आश्रमों में उसकी नींव पड़ रही है.
यहां जीवन जीने की नयी शैली मिलती है. इसलिए संपन्न घरानों के लोग भी देश-विदेश से सुविधाएं छोड़ कर सामान्य खाना खाने, पंखाविहीन आश्रम में रहने पहुंचते हैं, ताकि मानवीय परिवेश मिले. जिंदगी की रफ्तार-व्यस्तता ने हर एक के जीवन के मूल सवालों को ढंक दिया है, उन सवालों से आत्म साक्षात्कार करने. और दरस-परस करने लोग यहां आते हैं. खुद से खुद की मुलाकात के लिए.
आश्रम में रह रहे लोगों से मिलता हूं. कोई आइआइटी में टॉपर रहा है. कोई फिल्म में शीर्ष पर था. छोड़ आया. सब कुछ यश, लिप्सा, भोग, वैभव का जीवन. अतीत की वह गठरी नहीं खोलना चाहता. इस प्रचार युग में प्रसार की भूख नहीं. अपना अनुभव जरूर बताते हैं, यहां नया जीवन मिला है. आंतरिक प्रसन्नता है. ईर्ष्या, द्वेष, जलन से दूर हैं.
आश्रम के परिवेश में अनेक पढ़े-लिखे युवा-युवती आते हैं. स्वावलंबन, स्ट्रेस मैनेजमेंट से मुक्ति जानने (तनावमुक्त जीवन) और श्रम करने. आधुनिकता ने युवापन में ही, जो तनाव, रोग, माहौल दिया है, उस परिवेश में बच्चों को आश्रम में 4-6 माह रहना अनिवार्य कर दें, तो उनका भविष्य निखर जायेगा. सोचता हूं, अभिभावक के तौर पर दायित्व है, शैक्षणिक योग्यता के साथ-साथ जीवन जीने की दृष्टि देना. यह आश्रमों में ही संभव है. पहले के आश्रमों में भी राजा-रंक (कृष्ण-सुदामा) साथ रहते थे, आज भी रिखिया-योगदा जैसे आश्रमों में सब साथ रहते-खाते हैं. सामाजिक समरसता के केंद्र हैं, ये आश्रम.
ये आश्रमवासी किसी दूसरे आश्रम की आलोचना नहीं करते. खूबियां गिनाते हैं. प्रतिस्पर्द्धा ने हमारा लोक जीवन कितना श्रीहीन बना दिया है कि हम कार्यालयों में, घर में, समाज में परनिंदा और परिचर्चा में ही मगन रहते हैं. रस लेकर अफवाहें सुनते-सुनाते हैं. ठीक इस माहौल के विपरीत आश्रम जीवन है, इसलिए आश्रम बार-बार बुलाते हैं.
आश्रम जीवन देख कर कबीर का कथन याद आता है. मैं तो बिगड़ गया, तुम नहीं बिगड़ना. हरा भरा पेड़ था, चंदन के संग चंदन होकर बिगड़ गया. निर्मल जल था, गंगा के संग गंगा होकर बिगड़ गया. लोहा था, पारस के संग सोना होकर बिगड़ा.