यह धरातल नित्य आकाश या ब्रह्म आकाश में है. हमारे द्वारा किये गये यज्ञों से संसार से पापकर्मों से विलग हुआ जा सकता है. जीवन में इस प्रगति से मनुष्य न केवल सुखी बनता है अपितु अंत में निराकार ब्रह्म के साथ तादात्म्य द्वारा भगवान कृष्ण की संगति प्राप्त करता है.
समस्त यज्ञों का यही एक प्रयोजन है कि जीव को पूर्णज्ञान प्राप्त हो. जिससे वह भौतिक कष्टों से छुटकारा पाकर अंत में परमेर की दिव्य सेवा कर सके. कभी-कभी कर्ता की श्रद्धा के अनुसार यज्ञ विविध रूप धारण कर लेते हैं. जब यज्ञकर्ता की श्रद्धा दिव्यज्ञान के स्तर तक पहुंच जाती है, तो उसे ज्ञानरहित द्रव्ययज्ञ करनेवाले से श्रेष्ठ माना जाता है.
क्योंकि, ज्ञान के बिना यज्ञ भौतिक स्तर पर रह जाते हैं और इनसे कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं हो पाता. यथार्थ ज्ञान का अंत कृष्णभावनामृत में होता है, जो दिव्यज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है. ज्ञान की उन्नति के बिना यज्ञ केवल भौतिक कर्म बना रहता है.
किंतु जब उसे दिव्यज्ञान के स्तर तक पहुंचा दिया जाता है, तो ऐसे सारे कर्म आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कर लेते हैं. चेतनाभेद के अनुसार ऐसे कर्मयज्ञ कभी-कभी कर्मकांड कहलाते हैं और कभी ज्ञानकांड. यज्ञ वही श्रेष्ठ है, जिसका अंत ज्ञान में हो.
– स्वामी प्रभुपाद