अगर किसी को कुछ देना हो तो प्रेम से देना. प्रेम से दिया गया हो, तो ही दान में रोशनी होती है. सिर्फ प्रेम के कारण ही देना, और कोई कारण न हो, पाने की कोई आकांक्षा न हो, तो तुम्हारे जीवन में बड़ी रोशनी होगी, बड़ा प्रकाश होगा. दीये से सब दिखाई पड़ता है, दर्शन होता है. इसलिए सबसे अहम बात है, मेरे भीतर का दीया कैसे जले? अगर भीतर का दीया जलाना है, तो तेल खोजना पड़ेगा. और भीतर का दीया प्रार्थना के तेल से जलता है. दीया जल जाये तो भीतर सब दिखायी पड़ने लगता है.
जैसा है, वैसा ही दिखाई पड़ने लगता है. अगर किसी भी चीज की खोज करनी हो और अपने प्रेम को किसी एक केंद्र पर आधारित करना हो, एक जगह अपने प्रेम, अपने ध्यान को एकाग्र करना हो, तो वह एक ही बात है : मेरे भीतर प्रकाश कैसे प्रज्वलित हो? उपनिषद के ऋषि कहते हैं ले चलो हमें अंधकार से प्रकाश तरफ! वही सार-प्रार्थना है. क्योंकि दीये से ही सब दिखाई पड़ेगा. जो देता है उसी को दिखाई पड़ता है. जो बांटता है उसी को दिखाई पड़ता है. कृपण तो अंधा हो जाता है. दानी की आंख होती है.
आंख यानी प्रकाश. प्रकाश से तुम्हारी वास्तविक दशा का बोध होगा कि तुम कौन हो. ऐसा मत सोचना कि तुम्हारे भीतर परमात्मा अंश-अंश में प्रकट है. लेकिन यह पहचान कहां हो? भीतर तो अंधेरा छाया है. इसलिए दीया जलाओ! लेकिन यह पहचान कैसे हो? भीतर तो हम बड़े कृपण हो गये हैं. हम देना ही भूल गये हैं. जिस दिन हम देना सीख जायेंगे, हमारे भीतर प्रकाश जल उठेगा.
आचार्य रजनीश ओशो