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पितरों को भवसागर से पार करा देता है गयाधाम में पिंडदान
श्रीपति त्रिपाठी, ज्योतिषाचार्य sripatitripathi@gmail.com शास्त्रों में भगवान की पूजा से पहले अपने पितरों को पूज्यनीय बताया गया है. पितरों के प्रसन्न होने से सभी काम बन जाते हैं. पितरों को प्रसन्न करने के लिहाज से आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक के पंद्रह दिनों का (इस वर्ष 14 सितंबर से 28 सितंबर) विशेष महत्व […]
श्रीपति त्रिपाठी, ज्योतिषाचार्य
sripatitripathi@gmail.com
शास्त्रों में भगवान की पूजा से पहले अपने पितरों को पूज्यनीय बताया गया है. पितरों के प्रसन्न होने से सभी काम बन जाते हैं. पितरों को प्रसन्न करने के लिहाज से आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक के पंद्रह दिनों का (इस वर्ष 14 सितंबर से 28 सितंबर) विशेष महत्व है, जो ‘पितृपक्ष’ कहलाता है.
इसके बाद प्रतिपदा श्राद्ध, महालयारंभ होगा, जिसमें मां शक्ति की पूजा-अराधना का विधान है. इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पूर्वजों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध-तर्पण करते हैं. मृत्यु के पश्चात् पिता-माता व पूर्वजों की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किये जानेवाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं.
वैसे तो देश के कई तीर्थ स्थानों पर पूर्वजों का श्राद्ध करने की परंपरा है, शास्त्र ने इस कार्य के लिए गयाधाम को सर्वोत्तम माना है. यहां पूर्वजों को पिंडदान देना सर्वथा पुण्यदायी माना गया है. इसके अनुसार यहां आकर श्राद्ध करने से पूर्वजों को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है.
इससे परिवार को पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. मान्यता है कि आश्विन मास में सूर्य के कन्या राशि पर अवस्थित होने पर यमराज पितरों को यमालय से मुक्त कर देते हैं. पितर पृथ्वी पर आकर यह इच्छा करते हैं कि उनके पुत्र गयाधाम में आकर पिंडदान करें, ताकि हम पितरों को नारकीय जीवन से मुक्ति मिले –
गया श्रद्धात्प्रमुच्यन्तेपितरो भवसागरात्।
गदाधरनुग्रहेण ये यान्ति परमांगतिम्।।
अर्थात, गया-श्राद्ध से पितर भवसागर से पार हो जाता है और गदाधर के अनुग्रह से परमगति को प्राप्त होता है. श्राद्ध कर्म न सिर्फ पितरों की आत्मा की शांति के लिए किया जाता है, अपितु एक पुत्र होने के नाते स्वयं को पितृ ऋण से मुक्ति व इस भवसागर को पार करने के मार्ग को प्रशस्त करने हेतु किया जाता है.
गया धाम में श्राद्ध कराने से न सिर्फ आपके पितरों को तृप्ति मिलती है, बल्कि आपको पितृ दोष से मुक्ति भी मिलती है. पितृ दोष जो कि अनेक दुखों का कारण होता है, पितृ दोष से मुक्ति आपके सौभाग्य के सारे द्वार खोल देती है.
पितृगण कहते हैं कि जो पुत्र गया-यात्रा करेगा, वह हम सबको इस दुःख सागर से तार देगा. इतना ही नहीं, इस तीर्थ में अपने पैरों से भी जल को स्पर्श कर पुत्र हमें क्या नहीं दे देगा –
पदभ्यामपि जलं स्पृष्ट्वा सोऽस्मभ्यं किं न दास्यति।। वायुपुराण 105/9 यहां तक कहा गया है कि श्राद्ध करने की दृष्टि से पुत्र को गया में आया देख कर पितृगण अत्यंत प्रसन्न होकर उत्सव मनाते हैं –
गयां प्राप्तं सुतं दृष्ट्वा पितृणामुत्सवो भवेत्। वायुपुराण 105/9
शास्त्रों में ऐसे अनेक उद्धरण हैं. मत्स्य पुराण (12/17), ब्रह्मपुराण (3/13/104), वायुपुराण (85/19) में वर्णित है कि इसी पारिवारिक पावन परंपरा के निर्वहण के लिए परशुरामजी ने गया में श्राद्ध किया था. भगवान श्रीराम भी अपने दायित्व का निर्वहण करते हुए गयाधाम में पिता महाराज दशरथ के पिंडदान के लिए आये थे.
गरुड पुराण (अध्याय-143), शिवपुराण (ज्ञानखंड अध्याय 130), आनंदरामायण आदि में विस्तार से वर्णन मिलता है. गयाधाम में वह स्थल सीताकुंड के नाम से आज भी विख्यात है. लोक मान्यता है कि गयासुर नामक भगवान विष्णु के भक्त के शरीर पर यह नगरी बसी है. गयासुर ने भगवान से यह वरदान पाया था कि यहां पर श्राद्ध और पिंडदान करने से आत्मा को मुक्ति मिल जायेगी.
रेत से पिंडदान करने की पौराणिक परंपरा
गया में फल्गु नदी के तट पर रेत से पिंडदान करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. वाल्मिकी रामायण में सीता द्वारा पिंडदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है. वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुंचे. श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिये. उधर पिंडदान का समय निकला जा रहा था. तभी दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की मांग कर दी.
सीता जी असमंजस में पड़ गयीं. उन्होंने फल्गू नदी के साथ वटवृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया. भगवान राम और लक्ष्मण के लौटने पर मां सीता ने पूरी बात कही. फिर राम ने सीता से प्रमाण मांगा. मगर फल्गू नदी, गाय और केतकी के फूल तीनों इस बात से मुकर गये. सिर्फ वटवृक्ष ने सही बात कही. तब सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की. दशरथ जी ने घोषणा की कि सीता ने ही मुझे पिंडदान दिया.
इस पर राम आश्वस्त हुए, लेकिन तीनों गवाहों द्वारा झूठ बोलने पर सीता जी ने क्रोधित होकर गाय को झूठा खाने, फाल्गू नदी को ऊपर से सूखी और धरातल से नीचे बहने, केतकी के पुष्पों को शुभ कार्यों में वर्जित रहने का श्राप दिया. वहीं वट वृक्ष को सदैव हरा-भरा रहने का आशीर्वाद दिया. श्री राम को जब विश्वास हुआ तब उन्होंने स्त्रियों को पुरुष की अनुपस्थिति में श्राद्धकर्म करने का आशीर्वाद दिया. इसलिए फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत से पिंडदान दिया जाता है.
कौन पिंडदान का अधिकारी
शास्त्रों में पुत्र को ही तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध का अधिकारी माना गया है, लेकिन अगर पुत्र न हो, तो पत्नी को यह अधिकार दिया गया है. अगर पत्नी न हो, तो सगा भाई, पुत्री, नाती-पोते या उसके अभाव में सगे-संबंधी भी पिंडदान कर सकते हैं.
क्यों जरूरी है श्राद्ध कर्म
‘श्राद्ध’ शब्द श्रद्धा से बना है. श्रद्धया इदं श्राद्धम। श्राद्ध का प्रथम अनिवार्य तत्व है- पितरों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना. गरुण पुराण के अनुसार समय से श्राद्ध करने से कुल में कोई दुखी नहीं रहता. मनुष्य को आयु, संतान, यश, कीर्ति, धन-धान्य की प्राप्ति होती है.
भोजन कराना क्यों जरूरी
पितृ पक्ष में ब्राह्मण भोज के साथ हर दिन एक हिस्सा गाय, कुत्ता, कौवा, बिल्ली को देना चाहिए. इन्हें दिया भोजन सीधे पितर पाते हैं. इस पक्ष में पिंडदान नहीं देने से पितर नाराज हो कर अमावस्या को लौट जाते हैं और कष्ट देते हैं.
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