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”प्रसूता क्या जाने बांझ की पीड़ा”
मार्कण्डेय शारदेय, ज्योतिष व धर्मशास्त्र विशेषज्ञ ए क कहावत है- बांझ क्या जाने प्रसूता की पीड़ा. परंतु इसी कहावत को उलटकर कहा जाये कि प्रसूता क्या जाने बांझ की पीड़ा, तो कैसा रहेगा? दोनों में किसकी पीर गंभीर? विधाता की बड़ी मार की हूक इस सोहर के बोल में सुनाई देती है – ‘सुन लागे […]
मार्कण्डेय शारदेय, ज्योतिष व धर्मशास्त्र विशेषज्ञ
ए क कहावत है- बांझ क्या जाने प्रसूता की पीड़ा. परंतु इसी कहावत को उलटकर कहा जाये कि प्रसूता क्या जाने बांझ की पीड़ा, तो कैसा रहेगा? दोनों में किसकी पीर गंभीर? विधाता की बड़ी मार की हूक इस सोहर के बोल में सुनाई देती है –
‘सुन लागे दिया बिनु मंदिल, मांग बिनु सिंदूर हे।
ए ललना, ओइसहीं सून तिरियवा, से गोदिया बलक बिनु हे’।।
अर्थात जैसे दीपक के बिना मंदिर सूना लगता है, जैसे सिंदूर के बिना मांग सूनी लगती है, वैसे ही गोद में एक बच्चे बिना नारी सूनी लगती है. इसमें ऐसा दर्द है, जिसका एहसास किसी निःसंतान को ही समझ में आ सकता है.
वैसे ज्योतिष ने संतान से संबंधित सभी पक्षों पर सार्थक शोध किया है. संतान कितनी, कितने पुत्र, कितनी पुत्री, लायक, नालायक, दत्तकयोग, पितृ शत्रुयोग, वंशवृद्धियोग, वंशहीनयोग-जैसे विवेचन हमारे दिव्य द्रष्टा ऋषि-मुनियों की लोक-कल्याणी साधनाओं की ही उपज हैं. हमारे ज्योतिर्विद् पूर्वजों ने केवल कारण ही नहीं, निदान भी बताया है.
ऐसे में वर्तमान ज्योतिषी को दंपती की जन्मकुंडलियों पर गहन मंथन से सही निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए और समुचित परामर्श करनी चाहिए. दूसरी ओर निःसन्तान पति-पत्नी को भी चाहिए कि बताये गये उपचार का धैर्यपूर्वक पालन करें. प्रायः ज्योतिषी और जातक दोनों त्वरा के कारण श्रद्धा-विश्वास से दूर हो जाते हैं. हां, ज्योतिषी को अपना परामर्श मजबूती से देना ही चाहिए, पर चिकित्सकीय प्रक्रिया में हस्तक्षेप न हो.
पंचम भाव यानी संतान भाव का कारक ग्रह बृहस्पति है. मायने यह कि यह अनुकूल रहा तो बाधकता दूर रहती है. पुनः यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि पंचम में रहने पर या उस पर दृष्टि डालने पर मंगल, शनि राहु और केतु संतान-प्राप्ति में बाधा पहुंचाते हैं, बशर्ते वहां शुभ ग्रह की उपस्थिति व दृष्टि का अभाव हो.
लग्न और उसका सप्तम भाव पति-पत्नी का होता है. पंचम भाव संतान का होता है. लग्न कुंडली एवं चंद्र कुंडली (राशि कुंडली) दोनों से यदि पंचम-सप्तम भावों में उक्त भावों के स्वामी अपने घर में रहें या वहां शुभ ग्रह हों अथवा शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो संतान सुख संभव होता है.
ऐसा नहीं होने पर संतान-सुख की हानि होती है. पुनः यदि किसी का जन्म लग्न कन्या हो और वहां सूर्य हो, सप्तम (लग्न से सातवां मीन) में शनि हो तथा पंचम भाव में मंगल रहे तो दांपत्य सुख की कमी एवं संतान हानि संभव है. सप्तमेश का पंचम में होना, पंचम भाव से छठे, आठवें, बारहवें पाप ग्रहों का होना, पंचमेश का छठे, आठवें, बारहवें घर में होना भी प्रतिकूलता के सूचक हैं.
एक मत से किसी पुरुष की जन्मकुंडली में मंगल की राशि (मेष,वृश्चिक) में अकेला शुक्र (विशेषतः पंचम भाव में) बैठा हो, तो पुरुष की धातु निर्जीव हो सकती है. पुनः मंगल शुक्र की राशि (वृष, तुला) में हो तो उसकी स्त्री के रज में गर्भधारण की शक्ति नहीं हो सकती है.
आशय यह कि स्त्री-पुरुष की कुंडली में मंगल के क्षेत्र में शुक्र और शुक्र के क्षेत्र में मंगल हो तो शुक्राणु-दोष तथा रजोदोष के कारण संतानोत्पत्ति नहीं होती. संतान के अभाव में बच्चा गोद लेना भी धर्म सम्मत है, क्योंकि वह भी ग्रहीता माता-पिता का उद्धारक एवं वंशधर बताया गया है.
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