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आस्था और परंपरा के मायने

परंपराएं अक्सर बिना सोचे-समझे या समय के साथ उनकी प्रासंगिकता का ध्यान रखे बिना निभायी जाती हैं और यह भी नहीं सोचा जाता है कि वे हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करती हैं.

मोहन गुरुस्वामी, वरिष्ठ स्तंभकार

mohanguru@gmail.com

बीसवीं सदी के प्रारंभ में एक यहूदी बहुल रूसी गांव के जीवन को दर्शाती शानदार फिल्म ‘फिडलर ऑन द रूफ’ की शुरुआत ‘ट्रेडिशन’ (परंपरा) गीत से होती है, जिसमें मुख्य किरदार बताता है कि यहां हर चीज के लिए परंपरा है, हमारा खाना-पीना, सोना-जागना, पहनना-ओढ़ना सब कुछ परंपरा के अनुरूप होता है तथा परंपरा के कारण ही हर किसी को पता है कि वह कौन है और ईश्वर को उससे क्या अपेक्षा है. यह सही है कि बहुत सारे समाजों और समुदायों में हम अपनी पहचान परंपरा और उससे संचालित नियमों से करते हैं.

अगर पूछा जाए कि रविवार अवकाश और आत्मचिंतन का दिन क्यों हैं या हम शुक्रवार को प्रार्थना क्यों करते हैं या हम मंगलवार को मांस क्यों नहीं खाते, तो इसका उत्तर होगा- परंपरा. यह सूची अंतहीन है, लेकिन परंपराएं अक्सर बिना सोचे-समझे या समय के साथ उनकी प्रासंगिकता का ध्यान रखे बिना निभायी जाती हैं और यह भी नहीं सोचा जाता है कि वे हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करती हैं. येल विश्वविद्यालय में धर्म के प्रोफेसर जारोस्लाव पेलिकन का कहना उचित ही है कि ‘परंपरा मृतकों की जीवित आस्था है, परंपरावाद जीवितों की मृत आस्था है.’

कुछ परंपराएं पुरानी हैं, पर बहुत सारी अपेक्षाकृत नयी भी हैं. सार्वजनिक स्थलों पर गणेश की प्रतिमा स्थापित करना और उसे जुलूस के साथ विसर्जन के लिए ले जाना अपेक्षाकृत नयी परंपरा है. हालांकि गणेश की पूजा पुरातन युग से हो रही है, पर उनके त्योहार का सार्वजनिक उत्सव 1893 के आसपास शुरू हुआ. वह दौर भारतीय राष्ट्रवाद का प्रारंभिक काल था और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सामाजिक और धार्मिक आयोजन के रूप में गणेश पूजा का आयोजन सार्वजनिक रूप से करना शुरू किया था.

वे पंडालों में गणेश की विशाल प्रतिमाओं को रखनेवाले पहले व्यक्ति थे और दस दिन बाद उन्हें विसर्जित करने की परंपरा उन्होंने ही स्थापित की. यह हालिया परंपरा अब प्लास्टर ऑफ पेरिस और रासायनिक रंगों के प्रयोग के कारण हमारे लिए गंभीर पर्यावरण समस्या बन गयी है, जिससे हमारे जल निकाय दूषित हो रहे हैं. विसर्जन के बाद मलबों की साफ-सफाई का खर्च बहुत अधिक बढ़ गया है. सबरीमला के अयप्पा मंदिर में वयस्क महिलाओं के प्रवेश पर रोक तो और भी नयी परंपरा है.

त्योहारों का मौसम आ रहा है. दशहरा में निरीह पशुओं की बलि दी जायेगी, जैसे हाल में बकरीद पर किया गया. भारतीय सेना की इकाइयों में भी भैसों की बलि देने की परंपरा है. नेपाल में तो बड़े पैमाने पर भैंसों की बलि दी जाती थी. इन पर मेरी टिप्पणियों को परंपरा में हस्तक्षेप करने की संज्ञा दी गयी. यह भी कहा गया कि ये परंपराएं होने के साथ पवित्र कर्मकांड भी हैं. सबरीमला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश पर या तीन तलाक को अवैध घोषित करने के सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों पर भी ऐसी ही प्रतिक्रियाएं दी जाती हैं.

परंपरागत व्यवहारों के प्रति इस सम्मान पर सती प्रथा पर गवर्नर जेनरल विलियम बेंटिक की 1826 में कही गयी बात प्रासंगिक है. जब हिंदू भद्रलोक के कुछ लोगों ने उनसे कहा कि यह एक परंपरागत व्यवहार है, तो उन्होंने इतना ही कहा कि मेरे देश में भी एक परंपरा है. जब कोई हत्या करता है या किसी को मरने के लिए विवश करता है, तो हम उस हत्यारे को फांसी दे देते हैं. मेरी परंपरा आपकी परंपरा से बेहतर है. वर्ष 1829 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1815 से 1824 के बीच केवल बंगाल प्रेसीडेंसी में सती होने की 5995 यानी हर साल औसतन 600 घटनाएं हुई थीं.

मुस्लिम त्योहार में बलि देने की प्रथा यहूदी परंपरा से आयी है. परंपरा के अनुसार, अब्राहम ने ईश्वर के लिए अपने बेटे की बलि देना चाहा था, पर देवदूत ने उसे रोक दिया था. जब अब्राहम की आंख खुली, तो उसने एक भेड़ को सामने पाया. मुस्लिम परंपरा में यही कहानी कुछ बदलाव के साथ कही जाती है. इसी से हज के दौरान शैतान को पत्थर मारने की परंपरा जुड़ी हुई है. आज भी बड़ी संख्या में भेड़ों की बलि दी जाती है.

यह सब हजारों सालों से हो रहा है. यह माना जा सकता है कि ईश्वर बलि देनेवाले अपने भक्तों की आस्था से संतुष्ट हो जाते हैं. यह एक ऐसा विश्वास है, जिसका को कोई प्रमाण या ठोस आधार नहीं है. लिहाजा, अब समय आ गया है कि हम परंपरा के संदर्भ और औचित्य को समझें, धर्म को उसकी मानवता वापस लौटा दें और धार्मिक कर्मकांड के रूप में पशुओं की बलि चढ़ाना बंद कर दें.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार के लिए दूसरे आदर्श व्यक्तित्वों को अपनाना बखूबी जानते हैं, जैसा कि उन्होंने महात्मा गांधी के सुधारवादी प्रयोगों वाले व्यक्तित्व के साथ किया. यह अच्छा है. अब उनके लिए समय है कि वे हमारे दौर के राजा राममोहन राय बनें और हिंदू समाज, उसके कानून और आचार-व्यवहार में पूरी तरह सुधार की शुरुआत करें, लेकिनजैसा कि मार्क ट्वैन ने लिखा है- किसी पारंपरिक रीति को उचित ठहराने के लिए जितना ही कम तर्क होता है, उससे छुटकारा पाना उतना ही कठिन होता है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

posted by : Pritish sahay

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