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भारतीय ज्ञान परंपरा को विकसित करें

जब मेडिकल रिसर्च और तमाम आधुनिक उपाय अपर्याप्त साबित हो रहे हैं, तो भारत की जीवन पद्धति दुनिया को इस आपदा से निजात दिला सकती है, लेकिन बदले में दुनिया को स्वार्थ और आकंठ भौतिकवादी सुख को छोड़ना होगा.

श्रीनिवास, सह-राष्ट्रीय संगठन, मंत्री, एबीवीपी

shriniwas.hr@gmail.com

जब मेडिकल रिसर्च और तमाम आधुनिक उपाय अपर्याप्त साबित हो रहे हैं, तो भारत की जीवन पद्धति दुनिया को इस आपदा से निजात दिला सकती है, लेकिन बदले में दुनिया को स्वार्थ और आकंठ भौतिकवादी सुख को छोड़ना होगा.

कोरोना मामले में दुनिया के दो बड़े देशों में आरोप-प्रत्यारोप चल रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन भी विवादों के घेरे में है. कोरोना की उत्पत्ति के कारणों का पता लगाया जा रहा है. लेकिन, इससे कौन इनकार कर सकता है कि यह समस्या प्राकृतिक संसाधनों के शोषण के कारण पैदा हुई है. यदि 1995 से 2015 तक के जलवायु परिवर्तन को लेकर विश्व राजनीति के द्वंद्व को देख लें, तो यह स्पष्ट हो जाता है. अमेरिका इसे लेकर कभी भी गंभीर नहीं दिखा. जब-जब पर्यावरण को लेकर बहस छिड़ी, तो अमेरिका के साथ कई पश्चिमी देशों ने कन्नी काट ली. चीन दुनिया की दूसरी महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति बनकर उभरा, तो उसने भी वही रुख अपनाया. अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं इन देशों की गुलामी करने के लिए अभिशप्त हो चुकी हैं. फिर भूचाल आना ही था, जो कोरोना की रूप में आया.

पश्चिमी देशों की संस्कृति भारत की तरह प्रकृति से नहीं जुड़ी हुई है. हमारे यहां प्रकृति को आपसी रिश्तों से जोड़कर देखा जाता है. इससे हमारे सोचने का तरीका भी बदल जाता है. पूरी दुनिया की संस्कृति में प्रकृति संसाधन मात्र है. हमारे शास्त्रों में पेड़, पौधों, पुष्पों, पहाड़, पशु-पक्षियों, जंगली-जानवरों, नदियां, यहां तक कि पत्थर भी पूज्य हैं. कालिदास ने पर्यावरण संरक्षण विचार को मेघदूत तथा अभिज्ञान शाकुंतलम में दर्शाया है. रामायण तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों, उपनिषदों में वन, नदी, जीव-जंतु, पशु-पक्षियों की प्रशंसा की गयी. ऐतरेयोपनिषद के अनुसार, ब्रह्मांड का निर्माण पांच तत्वों पृथ्वी, वायु, आकाश, जल एवं अग्नि से हुआ है. इन्हीं पांच तत्वों में असंतुलन का परिणाम ही सूनामी, ग्लोबल वार्मिंग, भूस्खलन, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाएं हैं.

जब सोच लूट-खसोट की हो, तो प्रकृति का शोषण स्वाभाविक है, जो पिछले कई दशकों से हो रहा है. यह महज प्राकृतिक संकट नहीं है, बल्कि मानवजनित है. कोरोना महामारी ने पूंजीवादी और समाजवादी विश्व व्यवस्था के राजनीतिक और आर्थिक तंत्र पर सवाल खड़ा कर दिया है. पूंजीवादी और समाजवादी मॉडल ने किसी तीसरे को पनपने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी. एक ने राज्य को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान कर दी और दूसरे ने राज्य को एक बीमारी के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित किया. समाज की रचना और उसकी सार्थकता दोनों ही व्यवस्था में गौण होती चली गयी. आजादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनीतिक सोच भी इन्हीं दो धाराओं में सिमट गयी. प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू रूस के केंद्रीकृत व्यवस्था से प्रभावित थे, उन्होंने भारत को सोवियत मुखी बनाने की कोशिश की.

चूंकि, राजनीतिक आधार लोकतांत्रिक था, इसलिए बहुत कुछ अमेरिका की आर्थिक सोच से जुड़ गया. जिस ग्राम स्वराज को शक्ति देकर रामराज्य की बात गांधी जी ने की थी, उसे समाप्त कर दिया गया. गांव की रोजगार व्यवस्था टूटकर शहरों की दौड़ में शामिल हो गयी. लाखों लोग मजदूर बनकर महानगरों में आ गये. पर्यावरण की न्यूनतम मानक को भी ध्वस्त कर दिया गया. गांधी ने कहा था कि भारत कभी भी अंग्रेजों के आर्थिक ढांचे का अनुसरण नहीं करेगा, क्योंकि उसके लिए भारत को पृथ्वी जैसे तीन ग्रहों की जरूरत पड़ेगी. लेकिन, गांधी की बातें केवल उपदेश बनकर रह गयीं. आज माहमारी ने भौतिकवादी सोच पर आघात किया है, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है.

हमें समाजवाद और पूंजीवाद से हटकर अपनी देशज व्यवस्था का अनुसरण करना होगा. भारत की राजनीतिक व्यवस्था में राज्य और व्यक्ति के बीच समाज होता है, जो दोनों के बीच एक सेतु का काम करता है. यह राज्य के प्रति आदर और सम्मान पैदा करता है और राज्य को व्यक्ति के विकास के लिए अनुशासित करता है. इस ढांचे में द्वंद्व नहीं, बल्कि एक लगाव विकसित होता है. आज जब पूरी दुनिया भारत के पारंपरिक ज्ञान का बिगुल बजा रही है, अमेरिकी व्हॉइट हाउस में वेदों का उच्चारण हो रहा है. भारत की पर्यावरण समझ को दुनिया समझने को लालायित है. ऐसे में भारतीय ज्ञान परंपरा को विकसित करने की चुनौती भी है. वर्ष 1995 में क्योटो प्रोटोकॉल से लेकर पेरिस संधि तक पश्चिमी देश स्वार्थ की राजनीति करते रहे.

भारत में पेड़ों और नदियों की पूजा की जाती है. वर्षों तक पश्चिमी ज्ञान की परंपरा इसे मदारियों का खेल समझकर भारत का तिरष्कार करती रही, आज वही देश अपने राष्ट्रपति भवन में वेदों का मंत्रोचारण करवा रहा है. दरअसल, पश्चिमी दुनिया की सनक रही है कि वह अपनी जीवनशैली से पहले समस्या पैदा करता है फिर उस पर रिसर्च करने की विधि की स्थापना करता है. समेकित विकास का सिद्धांत भी पश्चिम की देन है, जो पर्यावरण से जुड़ा हुआ है, जबकि भारत की परंपरा और जीवनशैली में ही ये बातें आरूढ़ हैं, इसको पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ती. गांधी के ग्राम स्वराज से लेकर दीनदयाल के एकात्म मानववाद में प्रकृति भी शामिल है. पिछले छह वर्षों से केंद्र सरकार भारतीय ज्ञान परंपरा को विकसित करने की कोशिश में है. ज्ञान परंपरा की जड़ें संस्कृति से जुड़ी हुई हैं. इसकी विशेषता प्रकृति अनुकूल जीवनशैली की स्वाभाविक परिभाषा का विश्लेषण भी है. जब मेडिकल रिसर्च और तमाम आधुनिक उपाय अपर्याप्त साबित हो रहे हैं, तो भारत की जीवन पद्धति दुनिया को इस आपदा से निजात दिला सकती है, लेकिन बदले में दुनिया को स्वार्थ और आकंठ भौतिकवादी सुख को छोड़ना होगा. एक प्रकृतिजनित व्यवस्था की छाया में रहने का प्रण करना होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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