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गंगा से गायब होतीं देसी मछलियां

गंगा जल की मछलियों की कई प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा वर्षों से मंडरा रहा है और यह उद्गम स्थल से ही शुरू हो जाता है. यह नदी के पूरे पर्यावरणीय तंत्र के लिए हानिकारक है.

पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

pc7001010@gmail.com

भारत की सबसे बड़ी और दुनिया की पांचवीं सबसे लंबी नदी गंगा भारत के अस्तित्व, आस्था और जैव-विविधता की पहचान है. नदी केवल जलधारा नहीं होती, उसका अपना तंत्र होता है, जिसमें उसके जलचर सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं. गंगाजल की पवित्रता बनाये रखने में उसमें लाखों वर्षों से पायी जानेवाली मछलियों-कछुओं की अहम भूमिका है. जहां सरकार इसे स्वच्छ करने के लिए हजारों करोड़ की परियोजना चला रही है, वहीं गंगा की मछलियों की विविधता को खतरा पैदा हो रहा है. इस नदी की 143 किस्म की मछलियों में से 29 से अधिक प्रजातियों को खतरे की श्रेणी में रखा गया है.

अंधाधुंध और अवैध शिकार, प्रदूषण, जल अमूर्तता, गाद और विदेशी प्रजातियों के चलते मछलियों की पारंपरिक प्रजातियों के लिए खतरा पैदा हो गया है. अप्रैल 2007 से मार्च 2009 तक गंगा नदी में विदेशी मछलियां की 10 प्रजातियां मिली थीं. बीते दिनों वाराणसी में रामनगर के रमना से होकर गुजरती गंगा में डाॅल्फिन के संरक्षण के लिए काम कर रहे समूह को एक ऐसी विचित्र मछली मिली, जिसका मूल निवास हजारों किलोमीटर दूर दक्षिणी अमेरिका की अमेजन नदी है.

गंगा का जल तंत्र अमेजन से किसी तरह संबद्ध नहीं है. ऐसे में इस मछली के मिलने पर आश्चर्य से ज्यादा चिंता हुई. दो साल पहले भी इस इलाके में ऐसी ही एक सुनहरी मछली मिली थी. सकर माउथ कैटफिश नामक यह मछली पूरी तरह मांसाहारी है और इस क्षेत्र के नैसर्गिक जीव-जंतुओं का भक्षण करती है. यह नदी के पूरे पर्यावरणीय तंत्र के लिए हानिकारक है.

गंगा जल की मछलियों की कई प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा वर्षों से मंडरा रहा है और यह उद्गम स्थल से ही शुरू हो जाता है. पर्वतीय क्षेत्रों से मैदानी इलाकों में पानी के साथ आनेवाली मछलियों की कई प्रजातियां ढूंढे नहीं मिल रही हैं. गंगा की अविरल धारा में बने बांध मछलियों के सबसे बड़े दुश्मन हैं. गंगा को उत्तरांचल में कई जगह बांधा गया है. सीमेंट की दीवारों पर काई जम जाने से मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है, जो मछलियों के अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है. बांध के कारण नदी का बहाव अवरुद्ध होता है व पानी ताजा नहीं रहता. कीटनाशकों के नदी में घुलने से रीठा, बागड़, हील समेत छोटी मछलियों की 50 प्रजातियां गायब हो गयी हैं. मछलियों के सुरक्षित प्रजनन के लिए नैसर्गिक पर्यावास विकसित किया जाना जरूरी है.

नदियों पर बंधे बांध के अलावा मैदानी इलाकों में तेजी से घुसपैठ कर रही विदेशी मछलियां भी इनकी वृद्धि पर विराम लगा रही हैं. खतरा बन रही विदेशी मछलियों की आवक का बड़ा जरिया आस्था भी है. हरिद्वार में नदी में मछलियों को छोड़ना पुण्य कमाने का जरिया माना जाता है. यहां कई लोग कम दाम व सुंदर दिखने के कारण विदेशी मछलियों को बेचते हैं. ये मछलियां स्थानीय मछलियों और गंगा के लिए खतरा बन चुकी हैं. गंगा में देसी मछलियों की संख्या करीब 20 से 25 प्रतिशत तक हो गयी है, जिसकी वजह विदेशी मछलियां हैं.

गंगा और इसकी सहायक नदियों में पिछले कई वर्षों के दौरान थाईलैंड, चीन व म्यांमार से लाये बीजों से मछली की पैदावार बढ़ायी जा रही है. ये मछलियां कम समय में बड़ी हो जाती हैं, इसलिए अधिक मुनाफे के लिए इनका पालन होता है. ये मछलियां स्थानीय मछलियों का चारा हड़पने के साथ ही छोटी मछलियों को भी अपना शिकार बना लेती हैं.

विदेशी प्रजातियों, खासकर तिलैपिया और थाई मांगुर, ने गंगा की प्रमुख देसी मछलियों की प्रजातियों- कतला, रोहू और नैन के साथ पड़लिन, टेंगरा, सिंघी और मांगुर आदि- का अस्तित्व खतरे में डाल दिया है. किसी भी नदी से उसके मूल निवासी जलचरों के समाप्त होने का असर उसके समूचे पारिस्थितिकी तंत्र पर बहुत भयावह होता है. इससे जल की गुणवत्ता, प्रवाह आदि नष्ट हो सकते हैं. थाई मांगुर और तिलैपिया प्रजाति की मछलियां साल में कई बार प्रजनन करती हैं, इसलिए इनकी संख्या नियंत्रित करना बहुत बड़ी चुनौती बन गयी है.

विदेशी मछलियों में चायनीज कार्प की कुछ प्रजातियों, जैसे- कामन कार्प और शार्प टूथ, अफ्रीकन कैट फिश और अफ्रीकी मूल की तिलैपिया, की संख्या बहुत तेजी से बढ़ती है. गंगा में सकर माउथ कैट फिश जैसी मछलियों के मिलने का मूल कारण घरों में सजावट के लिए पाली गयी मछलियां हैं. दिखने में सुंदर होने के कारण सजावटी मछली के व्यापारी इन्हें अवैध रूप से पालते हैं. तालाबों, खुली छोड़ दी गयीं खदानों व जोहड़ों में इन मछलियों के दाने विकसित किये जाते हैं, जहां से वे घरेलू एक्वैरियम टैंक तक आते हैं.

बाढ़ व तेज बरसात की स्थिति में ये मछलियां अपने दायरों से कूद कर नदी की धारा में मिल जाती हैं. इनके तेजी से बढ़ने के कारण घरेलू एक्वैरियम टैंक से भी इन्हें नदी-तालाब में छोड़ दिया जाता है. थोड़े दिनों में ये नदी के पारिस्थितिक तंत्र में घुसपैठ कर स्थानीय जैव-विविधता और अर्थव्यवस्था को खत्म करना शुरू कर देती हैं. चिंता की बात यह है कि अभी तक किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में इन मछलियों की प्रजातियों के अवैध पालन, प्रजनन और व्यापार को लेकर कोई मजबूत नीति या कानून नहीं बनाया गया है. जाहिर है, देशज मत्स्य संपदा घोर संकट की ओर बढ़ रही है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

Posted by : Pritish Sahay

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