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तालिबान सरकार से कोई उम्मीद नहीं

अगर सचमुच दुनिया को अफगानिस्तान की चिंता है, तो उसके साथ पाकिस्तान पर भी राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक प्रतिबंध लगाना चाहिए.

तालिबान ने अफगानिस्तान में अपनी अंतरिम सरकार की जो घोषणा की है, उसमें अप्रत्याशित कुछ भी नहीं है. ये तो दूसरे लोगों ने धारणा बनायी हुई थी और अपने भ्रम पाले हुए थे कि तालिबान बदल गये हैं और उसके नये-नये नेता आ गये हैं, जो उदारवादी और प्रगतिशील हैं तथा दुनिया को लेकर संवेदनशील होंगे. ऐसी सोच-समझ का वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं था. हमारे सामने असलियत आ गयी है. इस सरकार का गठन ठीक उसी तरह हुआ है, जैसा पिछली बार 1996 में हुआ था.

अब तक जो तालिबान की तरह से कहा जा रहा था, वास्तव में वह उनका पैंतरा था और वे दुनिया को अपनी हकीकत से अंधेरे में रखना चाहते थे. इसमें उन्हें एक तरह से कामयाबी भी मिली है. अभी भी वे यही बोल रहे हैं कि अफगान धरती से वे कोई आतंकवादी गतिविधि नहीं होने देंगे. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान की तरफ से भी ऐसे आश्वासन दिये जाते हैं, पर होता ठीक उलटा है. हम तो पाकिस्तान पर भरोसा नहीं करते, तो तालिबान की बात पर भी भरोसा करने का कोई मतलब नहीं है. चूंकि तालिबानी पाकिस्तान के ही मोहरे हैं, सो वे उसी तरह का रवैया भी अपना रहे हैं.

जब पिछली बार अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनी थी, तब भी उसे अंतरिम या कार्यकारी सरकार ही कहा गया था. उस समय भी संरचना ऐसी ही थी. उस समय भी मंत्रियों के नाम के साथ कार्यकारी जुड़ा होता था. व्यावहारिक रूप से इसका कोई अर्थ नहीं है. अपनी ओर से तो वे कह रहे हैं कि यह अंतरिम सरकार है, तो क्या इसका मतलब यह लगाया जाए कि वे आगे कोई चुनाव करायेंगे? वह तो होना नहीं है. इसका यही मतलब हो सकता है कि इसमें और लोगों को बाद में शामिल किया जाए और यदि किसी मंत्री का काम पसंद नहीं आया, तो उसे हटा दिया जाए या कोई और पद दे दिया जाए.

लेकिन ऐसे काम तो कार्यकारी की संज्ञा दिये बिना भी किये जा सकते हैं. जहां तक शामिल मंत्रियों के आतंकी या प्रतिबंधित सूची में होने का मामला है, तो तालिबान का तर्क यह है कि ऐसा तो तब किया गया था, जब वे लड़ाई कर रहे थे और अब उन बातों का कोई मतलब नहीं है. यह भी है कि तालिबानी तब भी अपने को आतंकी नहीं मानते थे और अब भी नहीं मानते.

उनका संकेत स्पष्ट है कि यदि दुनिया को उनके साथ संबंध रखना है, तो दूसरे देश उन कार्रवाइयों को बदलें. वे कह रहे हैं कि यह दूसरे देशों का मसला है और वे कभी नहीं मानते कि वे दहशतगर्दी कर रहे थे, और अब तो समझौता हो गया, तो किस बात के दहशतगर्द.

जहां तक मंत्रिमंडल की घोषणा पर अन्य देशों की प्रतिक्रिया का प्रश्न है, तो वह बेहद निराशाजनक है. अमेरिका के विदेश विभाग ने इस बात पर अधिक चिंता जतायी है कि सरकार में महिलाओं को स्थान नहीं दिया गया है. आतंकियों के शामिल होने से अधिक चिंता उन्हें इस बात की है. इस बात से यह संकेत मिल जाना चाहिए कि अमेरिका इन्हें मान्यता देने और आगे संबंध बनाने के लिए भी तैयार है. अमेरिका समेत सभी अहम देशों का रवैया यही है कि अफगान जनता के साथ कुछ भी हो, उन्हें कोई मतलब नहीं है.

सबकी चिंता बस इस बात तक सीमित है कि उन्हें किसी तरह का आतंकी खतरा नहीं हो, बाकी अपने देश के भीतर तालिबान की जो मर्जी हो, वे करते रहें. भारत का भी रुख ऐसा ही है. हम चुप बैठकर तमाशा देख रहे हैं. तमाशा देखना ठीक है, लेकिन चुप बैठे रहना सही नहीं है. बीते दिनों पंजशीर घाटी में जो हुआ, उस पर बोला जाना चाहिए था. जब ईरान उस घटनाक्रम पर बोल सकता है कि पंजशीर हमले में पाकिस्तानी वायु सेना के शामिल होने की जांच होनी चाहिए और यह निंदनीय है, तो हम चुप क्यों हैं?

कम से कम यह तो कहा जाना चाहिए कि तालिबान संयम दिखाये, ऐसे हमले न करे, बातचीत से आपसी मसलों का हल करने की कोशिश करे. अन्य देशों ने भी पंजशीर हमले पर चुप्पी साधे रखी है. पता नहीं, सभी देशों को तालिबान से किस फायदे की उम्मीद है, दहशतगर्दों से किसी को क्या फायदा हो सकता है.

अगर सचमुच दुनिया को अफगानिस्तान की चिंता है, तो उसके साथ पाकिस्तान पर भी राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक प्रतिबंध लगाना चाहिए. आर्थिक प्रतिबंधों का यह मतलब नहीं है कि जो कुछ सहायता के लिए धन दिया जाता है, उसे रोक दिया जाए, बल्कि उसके व्यापार को रोका जाना चाहिए, उसका बहिष्कार होना चाहिए और उसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से मिलनेवाला धन रोका जाना चाहिए. यह प्रतिबंध संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से करना मुश्किल है क्योंकि वहां रूस और चीन ऐसे प्रस्ताव पर वीटो कर देंगे. लेकिन देशों के अपने स्तर पर ऐसा किया जा सकता है, जैसे अमेरिका ने रूस पर प्रतिबंध लगाया है. ऐसा पाकिस्तान के साथ करने में क्या मुश्किल है?

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तालिबान की सरकार में नाम तय करने में पाकिस्तान की अहम भूमिका है. वैसे लोगों को इस कैबिनेट में जगह नहीं मिल सकी है, जिनके बारे पाकिस्तान को यह शक था कि वे उनकी बात नहीं मानेंगे या जो किसी भी तरह से पाकिस्तान के आलोचक हैं. हो सकता है कि ऐसे लोगों आगे चलकर गवर्नर का पद मिल जाए या कोई और ओहदा दिया जाए, लेकिन काबुल में जो केंद्रीय सरकार बनी है, उसमें उनका प्रतिनिधित्व नहीं है. इसका एक पहलू यह भी है कि तालिबान में विभिन्न गुटों के बीच जो खींचतान थी, उसे सुलझाया गया है.

कट्टरपंथी और अपेक्षाकृत नरम सोच रखनेवालों को मिलाकर सरकार का गठन हुआ है, लेकिन कट्टरपंथी अधिक हैं और महत्वपूर्ण पदों पर हैं. देश के दक्षिणी हिस्से और पूर्वी हिस्से के पश्तूनों के बीच भी संतुलन बनाने की कोशिश दिखती है, हालांकि संख्या अभी भी दक्षिणी पश्तूनों की अधिक है, लेकिन कुछ अहम पद पूर्वी पश्तूनों को भी मिले हैं. यह कोई व्यापक प्रतिनिधित्व की सरकार तो नहीं है, कुछ को छोड़ कर सभी पश्तून हैं, जो देश के विभिन्न हिस्सों से हैं.

पूर्वी हिस्से से कुछ ऐसे पश्तून सरकार में हैं, जो हक्कानी नेटवर्क से नहीं हैं. यह चीजें इसलिए की गयी हैं ताकि बाद में आंतरिक गुटबंदी का मामला तूल न पकड़े. बहरहाल, जो भी हो, किसी को भी इस सरकार से अच्छी उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए और स्थितियों पर गंभीरता से नजर बनाये रखना चाहिए. उसी हिसाब से तैयारी भी करनी चाहिए.

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