35.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

क्या हम ‘नकसुरे’ हो रहे हैं!

परिणाम यह हुआ है कि आदेशार्थक क्रियापद के /-ओ/ को भी नाक लग गयी और बच्चों! आओं, बैठों, पढ़ों जैसे क्रिया के रूप भी दिखाई पड़ रहे हैं.

स्वर को नाक से बोलना ही नकसुरा होना है. भाषा की भाषा में कहें, तो- शुद्ध स्वर ध्वनि को भी अनुनासिक स्वर की भांति नाक से उच्चारण करने वाले को लोक में नकसुरा कहा जाना चाहिए. इस परिभाषा के आलोक में लगता है हिंदी समाज नकसुरा बनने पर तुला है. पहले संबोधन बहुवचन के /ओ/ को नाक से बोलने की जिद ने /ओ/ को /ओं/ कर दिया और भाइयो! बहनो! बच्चो! को नकसुर से भाइयों! बहनों! बच्चों! कहने का रोग फैला.

यह रोग पिछली सदी में नहीं था. पता नहीं, यह गर्व का विषय है या संताप का कि इसका व्यापक प्रसार कई लोगों के संबोधन में अनुनासिक के प्रयोग के साथ फैला है. उनके प्रारंभिक संबोधन में भाइयों!, बहनों!, मेरे प्यारे देशवासियों! आदि दिन में अनेक बार सुनाई पड़ते हैं. उसके बाद सैकड़ों मुंह महानों द्वारा ये बार-बार दोहराये जाते हैं.

परिणाम यह कि लोग इस उच्चारण को ही मानक समझ बैठे हैं क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है: यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः| / स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते|| आशय यह कि श्रेष्ठ जन जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं.

आज हिंदी भाषी लोग संबोधन में भाइयों! बहनों! जैसे रूपों को ही व्याकरण सम्मत और शत-प्रतिशत शुद्ध प्रयोग मान बैठे हैं और अपने व्यवहार में पूर्ण विश्वास के साथ उसका प्रयोग करते हैं. आश्चर्य तब होता है, जब हिंदी के बहुत से लेखक, शिक्षक, पत्रकार जैसे बुद्धिजीवी भी इस ओंकार का अधिकार पूर्वक प्रयोग करते हैं, बिना यह समझे कि वे असाध्य नकसुरा रोग से संक्रमित हो चुके हैं और इसे फैलाने का माध्यम बन रहे हैं. अगर हमारे नेता हमें ‘भाइयों-बहनों’ या ‘मेरे प्यारे देशवासियों’ कहकर संबोधित करते हैं तो हम देशवासियों के प्रति उनके प्यार का अनुकरण-अनुसरण किया जाना चाहिए, अशुद्ध हिंदी का नहीं.

व्याकरणिक स्थिति यह है कि हिंदी शब्दों की रचना करते हुए तिर्यक् पद निर्माण के लिए /-ओं/ प्रत्यय कर्ता, कर्म, करण संप्रदान, अपादान और अधिकरण कारकों से ही जुड़ता है. संबोधन बहुवचन में अर्थात एक से अधिक जनों को टेरने, बुलाने, आवाज देने के लिए प्रयोग कर रहे हैं तो कभी भी ‘-ओं’ नहीं होगा, सामान्य बहुवचन में अवश्य होगा.

जब सामान्य कथन में बहुवचन बनाने के लिए मूल एकवचन से /-ओं/ जोड़ते हैं, तो उसे एक साथी (कारक प्रत्यय) की भी आवश्यकता होती है, जैसे- बहनों ने, भाइयों को, पहाड़ों से, मित्रों के लिए, देवताओं का, नदियों में आदि. संबोधन में यह संभव नहीं होता, हो ही नहीं सकता. बिना अनुनासिक के और बिना किसी कारक प्रत्यय के सीधा बहुवचन बनेगा- भाइयो!, बहनो!, गुरुजनो! आदि.

इस नियम को समझाने के बाद भी कई लोग यह हठ करते हैं कि जब बहुवचन में सभी कारकों में /-ओं/ लगता है, तो संबोधन में क्यों नहीं. इस हठ के समाधान के लिए उन्हें कारक की संकल्पना को समझना होगा.

कारक का सीधा प्रकार्यात्मक संबंध होता है क्रिया से. वस्तुतः प्रकार्य की दृष्टि से संबोधन कारक नहीं है, क्योंकि अन्य कारकों की भांति क्रिया के साथ इसकी कोई अन्विति नहीं होती. मुख्य वाक्य की क्रिया से संबंध न होने से संबोधन में कारकत्व सिद्ध नहीं होता. वस्तुत: संबोधन तो अपने आप में स्वतंत्र वाक्य है. वाक्य पूरा अर्थ देता है और संबोधन पद भी. प्रत्यक्ष रूप में एक पद होते हुए भी अर्थ के स्तर पर उसमें पूरा वाक्य निहित होता है.

छोटा-सा उदाहरण है- जब आप पूछते हैं, ‘बच्चो! आज क्या खाओगे?’ तो ‘बच्चो’ संबोधन के साथ ‘बताओ’ क्रिया छिपी हुई है और दोनों से मिलकर पूर्ण अर्थ देने वाला वाक्य बनता है- ‘बच्चो, बताओ.’ इस कथन की आंतरिक संरचना में स्पष्टत: दो वाक्य हैं- बच्चो (बताओ/कहो). (तुम) आज क्या खाओगे? इसलिए जब संबोधन (बच्चो) का किसी कारक की तरह क्रिया से संबंध नहीं है, तो उसका कारक/तिर्यक रूप नहीं बनेगा. जब तिर्यक रूप ही नहीं बनना, तो /-ओं/ को जबरदस्ती यहां लाकर नकसुरा बनने की क्या आवश्यकता है.

संबोधन में नाक घुसाने की देखा-देखी यह अतिरिक्त निष्कर्ष निकाला गया, या कहिए निष्कर्ष में विस्तार किया गया, कि जो भी शब्द ओकार से समाप्त होता है, उसमें अनुनासिकता आ ही जानी चाहिए. परिणाम यह हुआ है कि आदेशार्थक क्रियापद के /-ओ/ को भी नाक लग गयी और बच्चों! आओं, बैठों, पढ़ों जैसे क्रिया के रूप भी दिखाई पड़ रहे हैं. हिंदी व्याकरण की स्कूली पुस्तकों में भी यह दिखाई पड़ने लगा है क्योंकि वे लेखक भी तो अंततः ऐसी ही पाठशालाओं, विश्वविद्यालयों से दीक्षित हुए हैं, जहां ओकार को मोक्ष दायक ओंकार में बदला जा चुका है.

अब नवीनतम प्रवृत्ति यह देखी जा रही है कि तुलनावाची ‘मानो’ को भी ‘मानों’ कर दिया गया है. ‘सेब इतना मीठा है मानों शहद हो.’ उत्प्रेक्षा अलंकार को समझाते हुए कहा जा रहा है- सिय मुख मानहु चंद = सीता का मुख मानों चंद्रमा. मैथिलीशरण गुप्त की प्रसिद्ध पंक्ति का कायापलट कर दिया गया है- ‘मानों झूम रहे हों तरु भी मंद पवन के झोंकों से.’ यह प्रवृत्ति बनी रही, तो लगता है, वह दिन दूर नहीं, जब प्रत्येक स्वर अनुनासिक हो जायेगा और हम शत प्रतिशत नकसुरे हो जायेंगे.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें