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कैसे सुधरे शिक्षा व्यवस्था

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक प्रभात खबर शिक्षा से जुड़ी पिछले कुछ दिनों की खबरों ने निराशा का वातावरण पैदा कर दिया है. बिहार और झारखंड के 10वीं और 12वीं के खराब रिजल्ट ने इस पूरे क्षेत्र में खलबली मचा दी है. बड़ी संख्या में बच्चे फेल हो गये हैं. अभिभावक और बच्चे हताश हैं. भविष्य […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
शिक्षा से जुड़ी पिछले कुछ दिनों की खबरों ने निराशा का वातावरण पैदा कर दिया है. बिहार और झारखंड के 10वीं और 12वीं के खराब रिजल्ट ने इस पूरे क्षेत्र में खलबली मचा दी है. बड़ी संख्या में बच्चे फेल हो गये हैं. अभिभावक और बच्चे हताश हैं. भविष्य को लेकर चिंतित हैं.
विशेषज्ञों का मानना है कि जब-जब नकल पर सख्ती की गयी है, नतीजे खराब रहे हैं. इसकी एक वजह यह है कि इम्तिहान में सख्ती तो कर दी गयी, लेकिन शिक्षा व्यवस्था में गुणात्मक सुधार नहीं हुआ. नतीजतन बच्चे फेल हो गये. बताते हैं कि बिहार में 1972-73 के दौरान केदार पांडेय मुख्यमंत्री थे और उन्होंने नकल पर नकेल कस दी थी. नतीजा यह रहा कि रिजल्ट 20 फीसदी से भी कम रहा. पूरे प्रदेश में हाहाकार मच गया.
लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है कि अगर परीक्षा में धांधली होने दी जाए, तो पूरे प्रदेश की छवि पर बट्टा लगता है. लब्बोलुआब यह कि नकल पर नकेल जरूर कसें, लेकिन साथ में शिक्षा व्यवस्था में व्यापक सुधार हो, तभी रिजल्ट ठीक रहेगा. मुझे लगता है कि कुछ दोष बिहार और झारखंड के शिक्षकों का भी है. अभी तक उनकी कड़ाई से नंबर देने की आदत नहीं छूटी है. दूसरी ओर सीबीएसई पर गौर करिए बच्चों को ग्रेस मार्क दिए जाते हैं. साथ ही कितनी उदारता से उन्हें नंबर दिये जाते हैं. 90 फीसदी नंबर लाने वाले बच्चों की बड़ी संख्या है. विज्ञान को तो छोड़िए, आर्टस के बच्चे भी 100 में 100 नंबर ले आते हैं.
नतीजा यह होता है दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों में, जहां प्रवेश का एक बड़ा आधार नंबर होते हैं, सीबीएसई बोर्ड के बच्चों का बोलबाला रहता है.
किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति उस देश की शिक्षा पर निर्भर करती है. अगर देश की शिक्षा नीति अच्छी है, तो उस देश को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता. अगर शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी, तो विकास की दौड़ में देश पीछे छूट जायेगा. राज्यों के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है. यही वजह है कि शिक्षा की वजह से हिंदी पट्टी के राज्यों के मुकाबले दक्षिण के राज्य हमसे आगे हैं.
एक बात हम सभी को समझ लेनी चाहिए कि बच्चों की पढ़ाना कोई आसान काम नहीं है. शिक्षक, शासन, शिक्षार्थी और समाज शिक्षा के अभिन्न अंग हैं. हालांकि शिक्षक शिक्षा व्यवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है. शिक्षा के बाजारीकरण के इस दौर में न तो शिक्षक पहले जैसे रहे, न ही छात्रों से उनका पहले जैसा रिश्ता रहा. पहले शिक्षकों प्रति न केवल विद्यार्थी, बल्कि समाज में भी आदर और कृतज्ञता का भाव रहता था.
अब तो ऐसे आरोप लगते हैं कि शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते. इसमें आंशिक सच्चाई भी है कि बड़ी संख्या में शिक्षकों ने दिल से अपना काम करना छोड़ दिया है. वे अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर रहे हैं. ऐसे कई उदाहरण हैं कि कुछ स्कूलों के 10वीं अथवा 12वीं के सभी बच्चे फेल हो गये. जाहिर है कि अध्यापकों ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया. इसकी रोकथाम के उपाय करने होंगे, अध्यापकों को जवाबदेह बनाना होगा. परीक्षा परिणामों को उनके परफॉर्मेंस और वेतनवृद्धि से जोड़ना होगा. सबसे दुखद बात है कि बच्चे भाषाओं में फेल हुए हैं.
विज्ञान, गणित, कला में तो पास हैं, लेकिन हिंदी, अंगेरजी, मैथिली, बांग्ला में फेल हो गये हैं. झारखंड सरकार इस प्रस्ताव पर विचार कर रही है कि जिन शिक्षकों का बोर्ड रिजल्ट अच्छा नहीं रहेगा, उनकी वेतनवृद्धि रोक दी जायेगी.
दूसरी ओर यह भी सच है कि प्रशासन लगातार शिक्षकों का इस्तेमाल गैर-शैक्षणिक कार्यों में करता है. प्रशासनिक अधिकारी शिक्षा और शिक्षकों को हेय दृष्टि से देखते हैं. यही नहीं, किसी भी देश के भविष्य निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का समाज ने भी सम्मान करना बंद कर दिया है.
उन्हें दोयम दर्जे का स्थान दिया जाता है. आप गौर करें, तो पायेंगे कि टॉपर बच्चे पढ़ लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर और प्रशासनिक अधिकारी तो बनना चाहते हैं, लेकिन कोई भी शिक्षक बनना नहीं चाहता. साथ ही यह इस देश का दुर्भाग्य है कि शिक्षा कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनती. इसी उपेक्षा ने हमारी शिक्षा को भारी नुकसान पहुंचाया है.
लेकिन सकारात्मक बात है कि बिहार और झारखंड में माता-पिता बच्चों की शिक्षा को लेकर बेहद जागरूक हैं.उनमें ललक है कि उनका बच्चा अच्छी शिक्षा पाए. यहां तक कि बच्चों की शिक्षा के लिए वे अपनी पूरी जमा पूंजी लगा देने को तैयार रहते हैं. यही वजह है कि बिहारशरीफ अच्छे स्कूलों में प्रवेश की तैयारी के हब के रूप में उभरा है. बच्चे नवोदय विद्यालय, तिलैया के सैनिक स्कूल अथवा देवघर के रामकृष्ण मिशन स्कूल में प्रवेश पा जाएं, इसके लिए माता-पिता बिहारशरीफ में जा कर रहते हैं और मोटी फीस देकर बच्चों की कोचिंग करवाते हैं.
बिहार में लड़कियों को स्कूल जाने के लिए साइकिल दिये जाने की पहल के बहुत अच्छे नतीजे निकले हैं. ऐसा भी नहीं है कि बिहार और झारखंड में श्रेष्ठ स्कूलों का अभाव है, लेकिन इनकी संख्या बेहद कम है. हर जिले (नये जिलों को छोड़ कर) में एक जिला स्कूल है. एक वक्त था, जब इनमें प्रवेश के लिए मारामारी रहती थी और ये माध्यमिक शिक्षा के श्रेष्ठ केंद्र हुआ करते थे.
अब इन्होंने अपनी चमक खो दी है. इनके स्तर में भारी गिरावट आ गयी है. हालांकि इन स्कूलों के अध्यापकों का वेतन सम्मानजनक है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता गिर गयी है. झारखंड का जाना माना नेतरहाट स्कूल, जिसने इस देश को असंख्य अधिकारी दिये हैं, उसकी गुणवत्ता तक में गिरावट आ गयी है. वहां के बच्चे परीक्षाओं में टॉप नहीं कर रहे हैं, लेकिन हाल के वर्षों में गुणवत्ता में अपनी पहचान स्थापित करने के भी उदाहरण हैं.
बिहार के जमुई स्थित सिमुलतला आवासीय विद्यालय ने कम समय में ही शिक्षा के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बना ली है. इस विद्यालय के अनेक बच्चे अपनी योग्यता से टॉप कर रहे हैं. आज जरूरत है, बिहार और झारखंड में शिक्षा के ऐसे अनेक श्रेष्ठ केंद्र स्थापित करने की, ताकि छात्र बेहतर शिक्षा पा सकें.

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