भारत द्वारा विदेशों से हथियारों की खरीदारी गत 5 वर्षो में 111 फीसदी बढ़ी है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की नयी रिपोर्ट बताती है कि विदेशों से हथियार खरीद के मामले में भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए शीर्ष पर आ गया है. देश ने बीते पांच वर्षो में पौने तेरह अरब डॉलर के हथियार खरीदे और इसका करीब 75 फीसदी हिस्सा सिर्फ रूस से है.
इस अवधि में चीन ने करीब सवा छह अरब डॉलर के हथियार खरीदे, जिसका बड़ा हिस्सा रूस से रहा. इसे संयोग ही कहा जायेगा कि यह रिपोर्ट उस वक्त आयी है, जब एक आस्ट्रेलियाई पत्रकार ने चीन के साथ युद्ध में भारत की विफलता के कारणों की पड़ताल करनेवाली मशहूर हैंडरसन रिपोर्ट के कुछ हिस्सों को अपनी वेबसाइट पर अपलोड कर दिया है. चीनी आक्रमण से निपटने में भारत की विफलता के कई कारणों में एक यह भी बताया जाता है कि तब देश हथियारों की कमी से जूझ रहा था और सैनिकों को जंग लगी राइफलों के सहारे चीनी दुश्मनों से लोहा लेना पड़ा.
हथियारों की खरीद से जुड़ी नयी रिपोर्ट इशारा कर रही है कि भारत ने चीनी आक्रमण के बाद से अब तक सैन्य-उपकरणों और हथियारों के मामले में खास सबक नहीं सीखा. जरूरत के हथियार देश ही में बनाये जायें, देश के कर्णधार इस मामले में चिंता तो जताते हैं, पर खास नीतिगत तैयारी नहीं दिखती. बीते महीने सैन्य मामलों से जुड़ी एक प्रदर्शनी में स्वयं रक्षामंत्री एके एंटनी ने माना कि आर्थिक महाशक्ति बनता भारत रक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से अब भी विदेशों पर निर्भर है. अपने देश में हथियार निर्माण की क्षमता के मामले में भारत शीर्ष दस हथियार आयातक देशों में सिर्फ सऊदी अरब से आगे है.
खजाने में धन हों, सीमा पार से खतरे की आशंका हो और आर्थिक महाशक्ति कहलाने की महत्वाकांक्षा हो, तो सैन्य-जरूरतें बढ़ना लाजिमी है. परंतु वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के दौर में उपभोक्ता वस्तुओं का बाजार भले एक सीमा तक आयात के बूते चलाया जा सके, सैन्य-साजो सामान के मामले में विदेश पर निर्भरता अपनी संप्रभुता को खतरे में डालना है. इसलिए सैन्य मामलों के नीति-नियंताओं को जवाब देना चाहिए कि चीनी आक्रमण के 52 साल बाद भी जरूरत का सैन्य साजो-सामान खुद बनाने में भारत क्यों फिसड्डी है!