विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
एक मई से देश में लालबत्ती की संस्कृति की समाप्ति की घोषणा कर दी गयी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वीआइपी कल्चर को अपनी ‘मन की बात’ में बीते हुए कल की चीज कह दिया है और यह भी घोषणा कर दी है कि अब ‘वीआइपी कल्चर’ नहीं ‘इपीआइ कल्चर’ देश में चलेगी. इपीआइ (एवरी मैन इज इम्पार्टेंट) अर्थात् हर व्यक्ति महत्वपूर्ण है. पर सवाल उठता है, क्या मंत्रियों की गाड़ियों से लालबत्ती हटा देने या हर ‘व्यक्ति को महत्वपूर्ण’ घोषित कर देने से अति महत्वपूर्ण व्यक्ति वाली संस्कृति समाप्त हो जायेगी? प्रधानमंत्री ने यह भी कहा है कि ‘न्यू इंडिया’ के पीछे की अवधारणा यह है कि वीआइपी की जगह इपीआइ ले ले. हम इसे खुशफहमी कह सकते हैं, पर देश के हर नागरिक को महत्वपूर्ण बना देने की इस सोच को समर्थन मिलना चाहिए. पर, पता नहीं क्यों यह डर लग रहा है कि आकर्षक नारे कहीं जुमलेबाजी का नमूना बन कर तो नहीं रह जायेंगे!
प्रधानमंत्री नये भारत की जगह न्यू इंडिया कहना ज्यादा पसंद करते हैं. शायद वे भी यह मानते हैं कि अंगरेजी में कही हुई बात का असर ज्यादा होता है. इन्हीं दिनों एक और कोशिश भी हुई है इस काम के लिए. देश के मध्यम वर्ग को हवाई यात्रा कराने की योजना भी बनायी है प्रधानमंत्रीजी ने. उनका सपना है कि हवाई चप्पल पहननेवाला भारतीय भी हवाई यात्रा करते हुए दिखे. इस सपने को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार सरकारी खजाने से सब्सिडी देगी. अनुमान है कि ढाई हजार के टिकट पर तीन हजार की सहायता-राशि दी जायेगी. यदि देश के निर्वाचित प्रतिनिधियों को हवाई-यात्रा के लिए ‘सब्सिडी’ दी जा सकती है, तो उन्हें चुननेवालों को भी यह सुविधा देने में आखिर गलत क्या है?
गलत यह है कि आकर्षक नारों की चादरें ओढ़ कर देश के आम नागरिक की वास्तविकता को ढका जा रहा है. गलत संदेश जा रहा है कि देश का आम नागरिक रोटी, कपड़े, मकान की परेशानियों पर विजय पा चुका है. सवाल प्राथमिकता का है. क्या यह सोचना गलत है कि इस देश के नागरिक के जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए?
विकास की किसी भी अवधारणा में रोटी पहली प्राथमिकता मानी जानी चाहिए. देश के हर नागरिक को भर पेट भोजन मिल सके, यह पहली जरूरत है उसकी. उसका तन ढकने के लिए कपड़ा हो, उसके सिर पर छत हो, उसे बीमारियों के इलाज की पूरी सुविधा मिले, उसकी उपयुक्त शिक्षा की व्यवस्था हो, उसके लिए पर्याप्त रोजगार के अवसर हों… ये सब किसी भी विकास की पहली पहचान और पहली शर्त है.
इस पैमाने पर हम कहां ठहरते हैं? सही है कि देश में करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि देश का हर नागरिक धनवान हो गया है. सही है कि पिछले दो दशकों में हमारा समग्र घरेलू उत्पाद साढ़े चार गुना हो गया है और प्रति व्यक्ति खपत भी तिगुनी हो गयी है, पर यह भी सही है कि दुनिया भर की कुपोषित जनसंख्या का एक चौथाई भारत में है.
लगभग बीस करोड़ भारतीय आज भी भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं. हर रोज देश में तीन हजार बच्चे भूख से होनेवाली बीमारियों के कारण मरते हैं. ऐसी स्थिति में हवाई चप्पल पहननेवालों को हवाई-यात्रा के ‘काबिल’ बनाने का क्या अर्थ है?
हमारी हकीकत यह है कि आर्थिक प्रगति के सारे दावों के बीच देश में आर्थिक विषमता लगातार बढ़ रही है. देश की आधी से अधिक संपदा एक प्रतिशत लोगों की जेब में है और आधी आबादी के पास पांच प्रतिशत संपदा भी नहीं है. न हम संसाधनों का संतुलित बटवारा कर पा रहे हैं और न ही हमारी नीतियां वंचित के पक्ष में खड़ी दिख रही हैं. किसी विजय माल्या का विदेश में जाकर शान से जीना और हमारे किसान का आत्महत्या करना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है.
आकर्षक नारों का अपना महत्व होता है, लेकिन यदि उनका उपयुक्त क्रियान्वयन नहीं होता, तो वही नारे हमारा मुंह चिढ़ाते लगते हैं. यह अच्छी बात है कि हमने लाल बत्ती की संस्कृति को खत्म करने की शुरुआत की है. लेकिन, जिस तरह से हमारे मंत्रियों ने अपनी कारों से स्वयं लाल बत्ती हटाने के चित्र टीवी पर दिखाये, वह इस बात का संकेत है कि नारे की भावना को समझा-स्वीकारा नहीं जा रहा है. लाल बत्ती को नहीं, लाल बत्ती की संस्कृति को हटाने की जरूरत है.
लाल बत्ती वाली मानसिकता को हटा कर ही एक संतुलित विकास वाले भारत की कल्पना को साकार किया जा सकता है. मेरा ख्याल है कि ‘वीआइपी’ से ‘इपीआइ’ की यह यात्रा तभी संभव हो सकती है, जब देश के हर नागरिक को विकास के लाभ का उचित और पर्याप्त हिस्सा मिले. तभी सबका विकास संभव है. तभी पटेंगी आर्थिक और सामाजिक विषमता की खाईयां. तभी सब जुड़ेंगे, तभी सब उड़ेंगे.