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सुकमा : नेतृत्व की गलतियां

अजय साहनी आंतरिक मामलों के जानकार सोमवार को छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सली हमले में पच्चीस सीआरपीएफ जवान शहीद हुए और कई घायल हुए. इस हादसे के पीछे सबसे बड़ी विफलता रणनीतिक स्तर पर रही. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं, तब राजनीतिक व्यक्तियों और प्रशासनिक अधिकारियों की तरफ से बयान […]

अजय साहनी
आंतरिक मामलों के जानकार
सोमवार को छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सली हमले में पच्चीस सीआरपीएफ जवान शहीद हुए और कई घायल हुए. इस हादसे के पीछे सबसे बड़ी विफलता रणनीतिक स्तर पर रही. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं, तब राजनीतिक व्यक्तियों और प्रशासनिक अधिकारियों की तरफ से बयान आने लगते हैं कि यह कमी रह गयी, वह कमी रह गयी.
ये लोग फौरन नुक्स निकाल लेते हैं कि जवानों ने मोर्चा नहीं बांधा, नक्सलियों के घात को समझ नहीं पाये, कंपनी कमांडर से चूक हुई, रक्षात्मक संरचना नहीं बनायी गयी, ऑपरेटिंग प्रोसीजर सही से लागू नहीं हो पाया, वगैरह-वगैरह. यह अपनी जिम्मेवारी से बचने का सबसे आसान तरीका होता है. लेकिन, सवाल यह है कि सुकमा में नक्सली हमले को नाकाम करने के लिए पहले से शीर्ष नेतृत्व ने जमीनी स्तर पर कोई रणनीतिक मूल्यांकन किया था कि अगर नक्सली हमला हुआ, तो इस क्षेत्र में 80-90 जवान खुद की सुरक्षा कर सकते हैं या नहीं? क्या 80-90 के बजाय 800-900 जवानों की जरूरत थी उस क्षेत्र में? इस सवाल का जवाब यही है कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था में कमी है, इसीलिए ऐसे हादसे हो जाते हैं. किसी भी संवेदनशील क्षेत्र में अगर जवानों और संसाधनों की थोड़ी भी कमी होगी, तो चूक अनायास भी हो सकती है.
व्यवस्था की यह कमी शीर्ष स्तर पर है या नीतिगत स्तर पर है, इस पर कोई भी राजनीतिक व्यक्ति या प्रशासनिक अधिकारी सवाल नहीं उठा रहा है, क्योंकि इसमें उन्हें खुद के फंसने का डर है. यह सवाल उठते ही मंत्री की बात आ जायेगी और सीआरपीएफ के डीजी की बात आ जायेगी. पिछले दो महीने से सीआरपीएफ के डीजी (महानिदेशक) का पद खाली पड़ा है. इस साल 28 फरवरी को के दुर्गा प्रसाद के सीआरपीएफ महानिदेशक के पद से रिटायर होने के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अतिरिक्त महानिदेशक सुदीप लखटकिया को सीआरपीएफ के प्रमुख पद का अतिरिक्त प्रभार सौंपा था. एक महानिदेशक के कार्यकाल की समाप्ति से छह महीने पहले ही अगले महानिदेशक की घोषण कर दी जाती है.
और वह उस छह महीने के दौरान वर्तमान महानिदेशक के साथ चलता है, यह समझने के लिए विशेष क्षेत्रों में किस तरह की रणनीति पर चल कर अपने जवानों को नेतृत्व दिया जा सके. इसका अर्थ यह हुआ कि महानिदेशक की नियुक्ति में आठ महीने की देरी हो चुकी है और अभी तक इसकी कोई घोषणा नहीं हो पायी है. यह राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों स्तर पर विफलता है और इससे जवानों के मनोबल पर असर पड़ता है, नक्सलियों के खिलाफ उनकी लड़ाई पर असर पड़ता है. केंद्रीय गृह मंत्रालय को पहले सीआरपीएफ के महानिदेशक की नियुक्ति के बारे में सोचना चाहिए.
भारत में जहां-जहां भी विद्रोह की स्थिति है, चाहे वह कश्मीर का मामला हो या फिर विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों का, वहां-वहां विद्रोहियों को रोकने के लिए न्यूनतम बल प्रयोग की अवधारणा है. बलों को यह तय करके चलना होता है कि अपने नागरिकों के खिलाफ तभी हथियार उठाया जाता है, जब बिल्कुल ही जान पर बन आये. इसलिए जब भी इन क्षेत्रों में कोई हादसा होता है, तो फौरन आंतरिक जांच बिठायी जाती है कि अपने नागरिकों पर बल प्रयोग सही था या गलत.
बलों का नेतृत्व इसी बात की हिदायत करता है कि इस लड़ाई में अपने नागरिक शामिल हैं, इसलिए इनके खिलाफ उतना ही बल प्रयोग किया जाये, जितना की जरूरी हो. कभी-कभी मोरचे पर तैनात जवानों का कमांडर कोई गलत निर्णय ले लेता है, जो मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है, लेकिन वह सुरक्षा बल का निर्णय नहीं होता है.
यह हालात के ऊपर निर्भर करता है, जैसा कि कश्मीर में एक शख्स को सेना ने जीप के आगे बांध रखा था. इसलिए हमारे शीर्ष नेतृत्व को ऐसे बयान नहीं देने चाहिए कि चूक हो गयी, बल्कि उन्हें व्यवस्था मजबूत करनी चाहिए.
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने सुकमा हमले के बाद कहा कि क्षेत्र में विकास कार्य तेजी से हो रहा है, इसलिए नक्सलियों में बौखलाहट है. नेताओं के ऐसे बयान पिछले दो दशक से सुनने में आ रहे हैं.
जब भी सुकमा या बस्तर में ऐसे हादसे होते हैं, हमारे नेता नक्सलियों की बौखलाहट का रोना रोने लगते हैं. मीडिया में यह खबर भी आ रही है कि प्रधानमंत्री मोदी नक्सलियों के खिलाफ सख्त कदम उठानेवाले हैं, शायद सर्जिकल स्ट्राइक जैसा सख्त कदम! अगर यह खबर सच है, तो यह ठीक नहीं है. हमने पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिक स्ट्राइक की थी. क्या कोई बता सकता है कि उससे कितना फायदा हुआ? क्या आतंकवाद खत्म हो गया? ऐसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि सर्जिकल स्ट्राइक के बाद कश्मीर में और भी आग लगी है. ये सब राजनीतिक वक्तव्य होते हैं, ऐसे बयानों का कोई मतलब नहीं होता है.
साल 2014 में केंद्र में सरकार बनने के बाद कहा गया था कि सरकार एक ‘एंटी नक्सल स्ट्रैटजी’ बनायेगी. तीन साल गुजर गये, लेकिन अभी तक ऐसी कोई स्ट्रैटजी नहीं है. इस मामले में आज भी सरकार एडहॉक सिस्टम से चल रही है- इधर से फोर्स उठा कर उधर लगा देती है. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जवानों की ट्रेनिंग पर कोई जोर नहीं है, न ही ऑपरेशनल बदलाव पर कोई जोर है.सीआरपीएफ जैसी संस्था महीनों तक बिना महानिदेशक के चल रही है. सरकारें सिर्फ बड़े-बड़े बयान देती-फिरती हैं कि ये कर देंगे-वो कर देंगे.
बड़े बयानों से कुछ नहीं होता और न ही जमीनी स्तर पर कोई बदलाव आता है. सरकार ने देखा कि नक्सलियों की हालत कुछ पतली हो गयी, तो उसने आंतरिक सुरक्षा के बजट में कटौती ही कर दी. कुल मिला कर देखें, तो केंद्रीय गृह मंत्रालय की प्रशासनिक संरचना में सक्रियता नहीं दिखती है. पूरे देश में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 223 से घट कर सौ से भी कम हो गयी है, इनमें से भी 35-40 जिलों में अंदरूनी लड़ाई तेज है, क्योंकि बाकी जगहों पर नक्सलियों ने हथियार डाल दिये हैं. इसके बावजूद भी अगर सुकमा जैसे हादसे होते हैं, तो यह राष्ट्रीय राजनीति नेतृत्व, रणनीतिक क्षमता और प्रशासनिक स्तर पर हुई गलतियों का नतीजा है.

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