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भरोसा जगानेवाला संदेश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीर के मसले पर ‘इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत’ नारे का अब तक दो दफे इस्तेमाल किया है, लेकिन अलग-अलग स्थितियों में. उन्होंने पहली बार जब इस नारे का इस्तेमाल किया, तब हालात कुछ और थे. साल 2016 के अगस्त में कश्मीर अलगाववादी हिंसा की आग में उबल रहा था और सड़कों […]

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीर के मसले पर ‘इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत’ नारे का अब तक दो दफे इस्तेमाल किया है, लेकिन अलग-अलग स्थितियों में. उन्होंने पहली बार जब इस नारे का इस्तेमाल किया, तब हालात कुछ और थे. साल 2016 के अगस्त में कश्मीर अलगाववादी हिंसा की आग में उबल रहा था और सड़कों पर आजादी के नारे लग रहे थे.
विपक्षी पार्टियां कह रही थीं कि प्रधानमंत्री ने कश्मीर के बिगड़ते हालात पर अपनी चुप्पी देर से तोड़ी है और कश्मीर समस्या का एक पहलू सामाजिक और राजनीतिक भी है, आर्थिक पक्ष को प्रधान मान कर सिर्फ विकास के जरिये कश्मीर के अलगाववादी स्वरों को हमेशा के लिए चुप नहीं कराया जा सकता. छह महीने के भीतर कश्मीर में हालात बदले हैं और इस बदले वक्त को एक बेहतर मौका मान रेल-सुरंग के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री ने फिर से कश्मीरी नौजवानों को इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत का संदेश सुनाया है.
उन्होंने दो टूक शब्दों में अपनी बात रखी है कि कश्मीरी नौजवानों को टेररिज्म (आतंकवाद) और टूरिज्म (पर्यटन-उद्योग) के बीच किसी एक को चुनना होगा. जाहिर है, ऐसा कह कर प्रधानमंत्री ने इशारों में जता दिया कि कश्मीर समस्या का सरलीकरण करना ठीक नहीं. कश्मीर को सीधे-सीधे अलगाववाद से जोड़ना समस्या का ऐसा ही सरलीकरण है. इससे एक बात तो बहुत साफ है कि कश्मीर को लेकर प्रधानमंत्री की सोच में एक निरंतरता है और इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए, क्योंकि देश के किसी हिस्से में स्थितियां घड़ी-घड़ी अपने तेवर और मिजाज बदलती हों, तो जरूरी नहीं कि शासन के स्तर पर भी नीतियों को हर वक्त बदला जाये. शासन किन्हीं गहरे अर्थों में दृढ़ संकल्प का भी प्रतीक होता है कि सबके साथ समानता का बरताव किया जायेगा और इंसाफपसंदगी इस बरताव की बुनियाद होगी.
इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत दरअसल संघीय ढांचे के भीतर अलग-अलग राष्ट्रीयताओं को वाजिब सम्मान देते हुए समान बरताव करने का ही फाॅर्मूला है. कश्मीर के लोगों को वही आजादी हासिल है, जो देश के बाकी नागरिकों को. किसी भी भारतीय नागरिक की तरह शिकायतों को मुखर करने और अपने हितों की नुमाइंदगी में प्रतिनिधि चुनने का समान अधिकार कश्मीरियत के पैरोकारों को भी हासिल है.
सो, संविधान के दायरे में रह कर सांस्कृतिक अस्मिता की बात करना ही उनके लिए समझदारी भरा एकमात्र रास्ता है. प्रधानमंत्री के इस भरोसा जगानेवाले संदेश से पाकिस्तान को संदेश मिल जाना चाहिए कि कश्मीरियत का राग अलाप कर अलगाववादी भावनाएं भड़काने की उसकी कोशिशों के दिन अब लद गये.

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