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असल सवालों से भटकाव

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार भारतीय संसद में बजट प्रस्तुति से कुछ ही दिनों पहले दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की सालाना बैठक हुई. फोरम में दुनिया के तमाम मुल्कों के नेताओं-योजनाकारों ने उस ‘ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट’ पर गहन चर्चा की, जिसमें मौजूदा वैश्विक व्यवस्था के समक्ष मंडराते बड़े खतरों को रेखांकित किया गया है. योजनाकारों और […]

उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
भारतीय संसद में बजट प्रस्तुति से कुछ ही दिनों पहले दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की सालाना बैठक हुई. फोरम में दुनिया के तमाम मुल्कों के नेताओं-योजनाकारों ने उस ‘ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट’ पर गहन चर्चा की, जिसमें मौजूदा वैश्विक व्यवस्था के समक्ष मंडराते बड़े खतरों को रेखांकित किया गया है.
योजनाकारों और नेताओं ने खतरे को वास्तविक मानते हुए वैश्विक स्तर पर बढ़ती गैर-बराबरी, वैश्वीकरण पर उठते सवालों और बेरोजगारी से निपटने में पूंजीवाद की अक्षमताओं पर विचार किया. इस बात को माना गया कि ‘ब्रेक्जिट’ और अमेरिका सहित अनेक विकसित देशों के सामाजिक-आर्थिक घटनाक्रमों के मद्देनजर पूंजीवाद में फिर एक नये वैश्विक सुधार की जरूरत है. फोरम की बैठक से कुछ घंटे पहले वैश्विक स्तर पर सक्रिय गैर-सरकारी संगठन ऑक्सफैम द्वारा जारी रिपोर्ट ने लोगों की चिंता और बढ़ायी. इस रिपोर्ट में भारत के बारे में भी एक अध्ययन पेश किया गया.
आॅक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि भारत के एक फीसदी अमीर लोग देश की 58 फीसदी से अधिक संपत्ति के मालिक हैं, 10 फीसदी अमीर लोग 80 फीसदी संपत्ति के मालिक हैं. 57 अरबपतियों के पास भारत की 70 फीसदी आबादी के बराबर की संपत्ति है. लोगों की आय-वृद्धि में भी भयानक गैरबराबरी है.
साल 1988 से 2011 के बीच सबसे गरीब 10 फीसदी भारतीयों की आमदनी में लगभग 2,000 रुपये की बढ़ोतरी हुई, यानी वह प्रतिवर्ष एक फीसदी की दर से बढ़ी, पर इसी अवधि मे सबसे धनी 10 फीसदी लोगों की आमदनी 40,000 रुपये बढ़ी, यानी 25 फीसदी वार्षिक की दर से बढ़ी. सीएसए ग्लोबल वेल्थ-2016 की रिपोर्ट के आकड़े भी इस असलियत की तस्दीक करते हैं. इन रपटों में नोटबंदी-बाद के परिदृश्य का विस्तृत अध्ययन नहीं है. देश में 94 प्रतिशत श्रमिक असंगठित क्षेत्र में हैं. दो दशकों के दौरान श्रम कानूनों के संशोधनों से इनकी हालत और खराब हुई है. हाल के दिनों में देश में हुई नोटबंदी की प्रक्रिया की सर्वाधिक मार भी इसी वर्ग को झेलनी पड़ी है.
आश्चर्य की बात कि आर्थिक सुधारों के क्रियान्वयन के बावजूद भारत में बढ़ती गैर-बराबरी, बेरोजगारी और गहराते सामाजिक-आर्थिक असंतुलन पर देश के राजनेताओं, योजनाकारों और यहां तक कि मीडिया के बड़े हिस्से में अपेक्षित चिंता नहीं दिखायी देती. हमारे वार्षिक बजट में भी इस पर कोई खास चिंता नहीं झलकती. दुनिया भर के विशेषज्ञ बता रहे हैं कि मौजूदा दौर में भारत को सिर्फ अपनी ग्रोथ-रेट से खुश नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे सोशल सेक्टर में निवेश बढ़ाना चाहिए.
यह बात सही है कि इस बार के बजट में कुछ बढ़ोतरी की गयी है, पर मुद्रास्फीति की रफ्तार और जरूरी क्षेत्रों में अपेक्षाकृत कम निवेश-प्रस्ताव के चलते वह नाकाफी है. उदाहरण के लिए हम शिक्षा और स्वास्थ्य को ही लें. शिक्षा के बजट में दिखनेवाली बढ़ोतरी की असलियत यह है कि प्राथमिक शिक्षा की उपेक्षा इसमें भी बरकरार है. सर्वशिक्षा अभियान पर तकरीबन 1,000 करोड़ का प्रावधान है, जो बेहद नाकाफी है.
इससे शिक्षा के अधिकार (आरटीइ), ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा के सुदृढ़ीकरण और कोठारी आयोग की कॉमन स्कूल सिस्टम जैसी सिफारिशों को लागू करना असंभव होगा. वहीं दूसरी तरफ, शिक्षा के बजटीय प्रावधान में विश्व व्यापार संगठन के निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने की व्यग्रता दिखती है, जिसके तहत उच्च शिक्षा क्षेत्र में बाजार की घुसपैठ को आसान बनानेवाले उपाय हुए हैं.
अलग से गठित उच्च शिक्षा वित्तीय एजेंसी उच्च शिक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र के निवेश का दायरा बढ़ायेगी. यानी उच्च शिक्षा आम लोगों की पहुंच से बाहर होगी. स्वास्थ्य के बजट मे बढ़ोतरी मामूली और नाकाफी है. विशेषज्ञ मानते हैं कि जन-स्वास्थ्य पर भारत को अपना बजटीय प्रावधान जीडीपी का कम से कम साढ़े चार फीसदी तक ले जाने की जरूरत है.
फिर भी कुछ लोग ‘ग्रोथ की महागाथा’ से लहलोट हैं. इस महागाथा में रोजगार, सेहत-शिक्षा और समानता कहां हैं? यूएनडीपी के मानव विकास सूचकांक-2016 में भारत 180 देशों के बीच 130वें स्थान पर है. इस पिछड़ेपन का बड़ा कारण शिक्षा और जनस्वास्थ्य को नजरंदाज करना है. हमारे नेता यह बताते अघाते नहीं कि भारत युवाओं का देश है. पर, बेतहाशा बढ़ते प्रदूषण, खाने-पीने की चीजों में मिलावट की यही रफ्तार कुछ साल और जारी रही, तो भारत युवाओं का नहीं, बीमारों का देश बन जायेगा. हृदय रोग, मधुमेह, लिवर-किडनी और कैंसर जैसी बीमारियां जिस तेजी से हमारे यहां अपने पांव पसार रही हैं, वह अभूतपूर्व है.
नोबेल-विजेता अमर्त्य सेन और थॉमस पिकेटी सहित देश-विदेश के सैकड़ों विशेषज्ञ विकास की मौजूदा रणनीति पर चिंता जाहिर कर रहे हैं. पर, हमारे राष्ट्रीय विमर्श में चिंता की लकीरें तक नहीं हैं. एक तरफ गरीबी का लहराता समंदर और दूसरी तरफ उस समंदर में अमीरी के कुछ टिमटिमाते बेहद धनवान द्वीप. इस सच को क्या सिर्फ जुमलों से झुठलाया जा सकता है?

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