कमलेश सिंह,इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक
kamlesh.singh@gmail.com
दुआ दीजिए राष्ट्रीय लोक दल के विधायकों को, जिन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा में अपने कुरते फाड़ दिये. चहुंओर फैली अराजकता के खिलाफ इतनी अराजकता से संघर्ष किया कि अराजकता को शर्म आ जाये और वहीं वेल में कूद कर आत्महत्या कर ले. हम पर रहम यह कि पतलून नहीं उतारी. वरना जनता के लिए दिल इनका इतना पसीजता है कि वह सदन में नंगे बदन उतर आयें. मुक्केबाजी, माइक को मिसाइल बनाना, बिल फाड़ना, दिल तोड़ना सब बीती बातें हैं. विरोध के नये तरीके निकल रहे हैं. लोकसभा-विधानसभा में हंगामा और स्थगन बहुत बोरिंग हो गया है. वेल में कूदना बच्चों का खेल बन गया है. आंध्र के एक सांसद को काली मिर्च का स्प्रे लाना पड़ा. दूसरे को चाकू दिखाना पड़ा. क्योंकि नारों का अकाल है, आइडिया की कमी है. कुछ ऐसा कर डालने की तमन्ना है कि कल अखबारों के पहले पन्ने से गन्ने के रस की तरह चू जायें. अपने क्षेत्र की जनता को मीठे-मीठे छू जायें. जब भी ऐसा अनर्गल होता है अखबारों में सुर्खियां होती हैं- फलां ने सदन को शर्मसार किया. शर्म इनको मगर नहीं आती, क्योंकि यह रोग हमारा है, हमने ही इनको बीमार किया है. इसका इलाज भी हम ही हैं, पर क्या मरीज को दवा देने की हिम्मत है हम में. ये बने थे हमारी आवाज बनने के लिए. हमने इन्हें क्या से क्या बना दिया.
सरकार का काम देश चलाना था. विधायिका का काम विधि बनाना था जिससे देश चले. हमारे सांसद और विधायक दिल्ली-पटना इसलिए बैठे होते थे कि जो कानून बने वह हमारे हित में हो, जो योजनाएं बनें, उसमें हमारी भागीदारी हो. हमारे संसाधनों की लूट ना हो, उस पर अंकुश रहे. देश की दिशा तय करने के लिए सभाएं बनीं. दशा के लिए सरकारें. और दुर्दशा पर हथौड़ा चलाने के लिए न्यायपालिका. इंजीनियर चाहे कितना ही पढ़ा-लिखा हो, उससे मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाना अंधा होने का इंतजाम है बस. लेकिन हम दिशा वालों से दशा ठीक करवाने लगे. कहने लगे कि आपके राज में ये क्या हो रहा है. राजतंत्र तो कब का गया फिर राज किस बात का. लोकतंत्र के पहरुये को पहरे देना था, उनसे चाकरी करवाने लगे. पहरा नहीं होगा तो चोरी तो होगी ही. एमपी से पूछने लगे कि हमारे पिछवाड़े का नाला साफ क्यों नहीं है. विधायक से कहने लगे कि यहां कुआं खुदवा दो. अपराध और चोरी-चकारी की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर डाल दी. काम जब नहीं होते तो हम उन्हें ही कोसते. चुनाव में हरा देते. वो विधायक और सांसद नहीं रहे, सरकारी कर्मचारी बन गये. थानेदारी भी उन्हीं की, मनसबदारी भी उन्हीं की. तो उन्होंने ले लिया.
नरसिम्हा राव की सरकार थी, उनको एक-एक एमपी के लाले पड़े थे. समर्थन के बदले धन दे रहे थे. सबने मिल कर दबाव बनाया और उसकी आंच में एक नया पुलाव पकाया. उसका नाम दिया एमपीलैड. उनका बहाना भी जायज था, क्योंकि जनता की उम्मीदें ही कुछ और हो गयीं. एमएलए का भी अपना फंड. करोड़ों रुपये हर साल. एक सांसद को पांच करोड़ रुपये हर साल मिलते हैं. उनको अपने लपलपाते लालच से बचाने के लिए तनख्वाह भी मोटी कर दी गयी. एक एमपी की सालाना तनख्वाह 45 लाख कर दी गयी. फिर भी सीएजी की एक जांच में पाया गया कि खाता-बही सही नहीं है. अपने चहेतों को ठेके देके पीछे से कइयों ने मालपुआ घपोसा. चमचों ने भी चमचे उस कड़ाही में डाले. जितनी निकली, निकाले. बंदरबांट हुई. सीएजी कहती है शुरूआत में जब माल कम था तो उड़ता भी कम था. पांच लाख से शुरू हुई स्कीम अब पांच करोड़ है, तो तोड़-मरोड़ की संभावनाएं बेहतर हैं और हालात बदतर. 111 क्षेत्रों के सैंपल ऑडिट में पाया कि 161 करोड़ रुपये गोल थे. आप कहेंगे ये नेता बेईमान हैं, पर उनको काहे दुखी करते हैं.
आप देश की दशा से दुखी नहीं थे, विधायिका से सुखी नहीं थे, आप को चापाकल के बिना कल नहीं था. आप एक खंभे से खुश हो गये, आरसीसी की सड़क डल गयी. आपकी तो निकल गयी. उनकी भी इज्जत चली गयी मगर पैसा तो आ गया. सांसद और विधायक उन कामों में लग गये जो क्षेत्रीय हैं, स्थानीय हैं और दिखते हैं. वह आपको वही दिखाने लगे जो आप देखना चाहते हैं. अब वह हर उस काम में माहिर हैं, जो उनका कभी था ही नहीं. लोकसभा में बीस विधेयक बीस मिनट में पास होते हैं. बजट तो इस बार कुछ यूं पास हुआ जैसे हवा का झोंका. क्योंकि जनता यह नहीं देख रही कि हमारा सांसद देश के लिए क्या कर रहा है. इससे मतलब है कि वे हमारे लिए क्या कर रहे हैं. विधि का विधान देखिए कि विधान वाले विकास के लिए जिम्मेदार हो गये. विकास वाले विधान कर रहे हैं. हम कुछ ऐसे भारत निर्माण कर रहे हैं.