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बधाई कूटनीति के बरअक्स

पुष्परंजन ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक सितंबर के आखिर में प्रधानमंत्री मोदी ने संकल्प किया था कि पाकिस्तान को वह ‘आइसोलेट’ कर के रहेंगे. इस भीष्म प्रतिज्ञा के तीन माह पूरे भी नहीं हुए कि मोदीजी ने अपने मित्र नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई दे डाली. ऐसी ही बधाई राहुल गांधी, सीताराम येचूरी […]

पुष्परंजन
ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक
सितंबर के आखिर में प्रधानमंत्री मोदी ने संकल्प किया था कि पाकिस्तान को वह ‘आइसोलेट’ कर के रहेंगे. इस भीष्म प्रतिज्ञा के तीन माह पूरे भी नहीं हुए कि मोदीजी ने अपने मित्र नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई दे डाली. ऐसी ही बधाई राहुल गांधी, सीताराम येचूरी या प्रतिपक्ष के किसी नेता ने दी होती, तो राष्ट्रवादी उनका जीना हराम कर चुके होते. मोदी जी की शुभकामना से पाकिस्तान में यह संदेश गया है कि भारत अब पहले से कही ज्यादा ‘सॉफ्ट स्टेट’ है.
17 सितंबर को प्रधानमंत्री मोदी का जन्मदिन है. मगर, नाशुक्रा नवाज शरीफ ने एक बार भी मोदी को ‘हैप्पी बर्थ डे’ नहीं कहा होगा. नवाज की जफा में किस बात की जुस्तजू मोदी कर रहे हैं, यह कूटनीति के माहिरों के लिए एक मुश्किल सवाल है. जन्मदिन की शुभकामनाओं की कीमत भारत को अपने जवानों के खून से चुकानी होती है. पहले भी क्रिसमस के दिन मोदी जी लाहौर के जटी उमरा पैलेस में नवाज शरीफ को जन्मदिन मुबारक कहने और उनकी पोती की शादी की बधाई देने पहुंच गये थे. उसके हफ्ते भर बाद ही पठानकोट एयर बेस पर आतंकी हमला हो गया था.
2009 के बाद, 2016 कश्मीर के वास्ते सबसे अधिक खून-खच्चर वाला साल रहा है. दक्षिण एशिया में हिंसा और आतंक का डाटाबेस रखनेवाले ‘साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल’ के अनुसार, ‘20 नवंबर 2016 तक जम्मू-कश्मीर में 233 लोगों की मौत हुई, जिसमें 148 अतिवादी मारे गये और सुरक्षाबलों के 74 जवान शहीद हुए हैं. शेष आम नागरिक मारे गये हैं.’
नोटबंदी के बाद घाटी में तीन बैंक डकैती, चार छोटे-बड़े आतंकी हमले ढोल की पोल खोल रहे हैं. एक साल में सिर्फ कश्मीर फ्रंट पर भारतीय सुरक्षाबलों के 74 जवानों का शहीद होना मोदी सरकार के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. उधर, इंसानियत के दुश्मन नवाज इसे अपनी उपलब्धि मानते हैं. पता नहीं, पाकिस्तान को ‘सबक सिखाने’ की सार्वजनिक धमकियां देकर हमारे मंत्री अपना मजाक क्यों बनाते हैं!
पाकिस्तान कहीं से ‘आइसोलेट’ नहीं हो सका है. बल्कि, एक नये कूटनीतिक ध्रुवीकरण का वह अहम हिस्सा बना है, जिसमें रूस, चीन, ईरान, सऊदी अरब, कजािकस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, यूएइ और तुर्की जैसे देश शामिल हैं.
अभी अफगानिस्तान में नयी रणनीति पर रूस, चीन, और पाक ने मास्को में बैठक की, जिसमें तालिबान से दोस्ती और आइसिस को बढ़ने से रोकने को प्रमुख एजेंडा बनाया गया था. अफगान में इसे लेकर काफी नाराजगी थी कि हमारे देश के भविष्य पर बात हो रही है और हमें ही शामिल नहीं किया गया. अफगान संसद के स्पीकर ए रउफ इब्राहिमी ने गनी सरकार से कहा कि वह मास्को से इस बारे में सवाल करे कि ऐसा क्यों हो रहा है, और उसकी मंशा क्या है.
इस नये ध्रुव्रीकरण ने वाशिंगटन तक को असहज किया है. वॉयस ऑफ अमेरिका के मुताबिक, ‘संयुक्त राष्ट्र में रूसी दूत विटली चुरकिन ने सुरक्षा परिषद् को सूचना दी कि आइसिस आतंकी सीरिया और इराक से भाग कर अफगान जैसे नये ठिकाने की तरफ रुख कर रहे हैं. इससे रूस और सेंट्रल एशियाई देशों को खतरा है. तालिबान पर प्रतिबंध सुरक्षा परिषद् ने लगाया है, उसे हटाना होगा, ताकि आइसिस को रोकने के लिए तालिब ताकतों का इस्तेमाल किया जा सके.’
रूसी दूत विटली चुरकिन के बयानों से इसका अंदाजा लग जाना चाहिए कि सुरक्षा परिषद् में तालिबान पर से प्रतिबंध हटाने, उसके नेता मौलवी हैबातुल्ला को मान्यता देने का प्रस्ताव चीन या रूस में कोई भी स्थाई सदस्य दे सकता है. पाकिस्तान ऐसा इसलिए चाहेगा, ताकि नये तालिबान नेतृत्व का इस्तेमाल अपनी सीमाओं से लेकर काबुल तक कर सके.
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अमृतसर के हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन में तालिबान, हक्कानी नेटवर्क, जुंदल्ला, लश्करे तैयबा जैसे दर्जनों आतंकी समूहों को एक सांस में गिन दिया था, जो सरहद पार पाकिस्तान से अफगानिस्तान में आतंक फैलाते हैं. लेकिन, उन लफ्जों का कोई असर पाकिस्तान पर दिखा नहीं. बल्कि, मास्को बैठक के जरिये माहौल ऐसा बना कि अब राष्ट्रपति अशरफ गनी इस त्रिगुट (रूस, चीन, पाकिस्तान) के आगे मत्था टेकने को तैयार हो गये.
कुछ हफ्ते पहले तक प्रधानमंत्री मोदी अमृतसर में नवाज शरीफ के विदेश नीति सलाहकार सरताज अजीज को अशरफ गनी के माध्यम से खरी-खरी सुनाने को लेकर आत्ममुग्ध थे. इस आत्ममुग्धता से बाहर निकलने की जरूरत है. यह सच है कि आइसिस सेंट्रल एशिया से लेकर अफगान तक अपनी धमक पैदा कर रहा है.
आइसिस 2017 का नया सिर दर्द है, जो अफगान में आया, तो कश्मीर उसका अगला निशाना हो सकता है. तो क्या यह भारत की कूटनीतिक मजबूरी होगी कि वह ‘त्रिगुट’ से रणनीतिक साझीदारी करे? डोनाल्ड ट्रंप की अफगान नीति अपने पूर्ववर्तियों की तरह रूस और चीन को निषेध करनेवाली होगी, ऐसा नहीं लगता!

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