सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा है कि वे अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों पर उत्पीड़न और उनके साथ होनेवाले भेदभाव को रोकने में बुरी तरह से विफल रही हैं. क्षुब्ध खंडपीठ ने संवैधानिक व्यवस्थाओं और कानूनी प्रावधानों का हवाला देते हुए चिंता जतायी है कि सरकारों और प्रशासन के निराशाजनक रवैये के कारण दलित और आदिवासी समुदाय आज भी हाशिये पर रहने के लिए अभिशप्त है. प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर तथा न्यायाधीशद्वय डीवाइ चंद्रचूड़ और एल नागेश्वर राव की इस खंडपीठ ने स्पष्ट कहा है कि समानता के संवैधानिक लक्ष्य को हासिल करने की बुनियादी शर्त वंचित तबके के अधिकारों की सुरक्षा है.
उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि 2009 से 2014 के बीच अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विरुद्ध अपराधों में क्रमशः 40 और 118 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. वर्ष 2014 में अपराधों की संख्या की दृष्टि से सर्वाधिक घटनाएं उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा जैसे राज्यों में दर्ज की गयी. जनसंख्या में अनुपात के स्तर पर उत्पीड़न की सबसे अधिक घटनाएं केरल जैसे साक्षर और संपन्न राज्य में घटती हैं. खबरों के हिसाब से देखें, तो हालात बद से बदतर ही होते जा रहे हैं. सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण दलितों और आदिवासियों को न्याय पाने में भी बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, भारतीय दंड संहिता के तहत दर्ज सभी मामलों में दोषी को सजा देने की दर 45 फीसदी के करीब है, लेकिन दलितों और आदिवासियों पर उत्पीड़न के मामले में यह दर महज 28 फीसदी के आसपास है. ऐसे मामलों की जांच और सुनवाई की निर्धारित विशेष व्यवस्थाएं जमीनी हकीकत नहीं बन सकी हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आय, संपत्ति आदि मामलों में भी ये तबके बेहद पीछे हैं. सत्तर सालों के भारतीय लोकतंत्र पर
यह वंचना निश्चित रूप से एक बड़ा सवाल है. हमारी आबादी और अर्थव्यवस्था
में अनुसूचित जातियों और जनजातियों का बड़ा हिस्सा है. उन्हें पीछे रख कर विकास और समृद्धि का सपना साकार नहीं हो सकता है. उम्मीद है कि न्यायालय की इस टिप्पणी से सरकारों को एक बार फिर अपनी बड़ी जिम्मेवारी का अहसास होगा.