उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
जब कभी संसद में गतिरोध, उलझाव व टकराव देखता हूं, तो बहुत हैरान या चकित नहीं होता. अपनी लोकतांत्रिक चुनौतियों की लगातार अनदेखी करते रहने का यह सब नतीजा है. बीते कई दशकों से हमारे नीति-निर्धारक और पार्टी-व्यवस्था के संचालक अपनी अंदरूनी राजनीतिक चुनौतियों को संबोधित करने से लगातार बचते रहे हैं. भारत ने अाजादी के बाद अपनी लोकतांत्रिक यात्रा की शुरुआत बहुत धीर-गंभीर ढंग से की थी. आजादी की लड़ाई के बड़े बौद्धिक-राजनीतिक योद्धा उस यात्रा की अगुवाई कर रहे थे. तब से अब तक इस यात्रा में कई पड़ाव आये, कई उलटफेर हुए. लेकिन टेढ़े-मेढ़े रास्ते यह चलती रही. आज इसका रास्ता ज्यादा दुरूह दिख रहा है. इसे सुगम बनाने के लिए जिस तरह के बड़े राजनीतिक सुधार की जरूरत है, वह हमारे नीति-निर्धारकों और प्रमुख राजनीतिक दलों के एजेंडे में ही नहीं है.
सन् 1991 के दौर में देश में आर्थिक सुधार की शुरुआत हुई. इसकी पहल करनेवाले दल या उसकी अगुवाई वाली सरकार ने आर्थिक ढांचे में विश्व बैंक और आइएमएफ आदि द्वारा संस्तुत संरचनात्मक सुधार के लिए देश की जनता से सहमति नहीं ली थी. पर, पूंजी की वैश्विक शक्तियों ने बड़ी आसानी से भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच ‘आर्थिक सुधारों’ को लेकर आम सहमति बना ली. तब संसद और उसके बाहर सरकार और अन्य प्रमुख दलों की तरफ से बार-बार बयान आते रहे कि देश में ‘सुधारों’ के लिए आम सहमति है.
कब बनी आम सहमति, यह कोई नहीं जानता! ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आर्थिक सुधार अगर किसी जनादेश के बगैर शुरू हो सकते हैं, तो राजनीतिक सुधारों पर सरकारें और राजनीतिक दल हमेशा खामोश क्यों रहते हैं?
भारतीय संसद और देश के दो प्रमुख राज्यों के विधानमंडलों के कवरेज के अपने 30 वर्षों के अनुभव की रोशनी में जो कुछ आज मैं देख रहा हूं, वह हमारे जनतंत्र की सेहत को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं करता. आजादी के बाद काफी समय तक निर्वाचित प्रतिनिधियों का बड़ा हिस्सा ठेठ राजनीतिक कार्यकर्ताओं की कतारों से आता था. आज का परिदृश्य ऐसा नहीं है.
चुनाव के लिए पार्टी टिकट पाने से लेकर निर्वाचित होकर सदन में पहुंचने की माननीय सदस्यों की यात्रा पहले जैसी सहज-स्वाभाविक नहीं रह गयी है. आज ज्यादातर पार्टियों की प्राथमिकता होती है- धन-बल-धारी उम्मीदवारों की तलाश. नतीजा भी सामने है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफाॅर्म्स (एडीआर) के आकड़ों के मुताबिक, पिछली लोकसभा के मुकाबले इस लोकसभा में करोड़पति सदस्यों की संख्या तीन गुना बढ़ी है. दलों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं और विचारधारा का वर्चस्व कैसे कायम हो, परिवारों, कॉरपोरेट और ‘रिमोटधारी’ अन्य लाबियों का शिकंजा कैसे कमजोर हो, इस बारे में सोचने और कुछ करने के लिए विधायिका और कार्यपालिका की तरफ से कोई पहल नहीं है. एक साधारण सुधार के लिए भी कोर्ट से पहल का इंतजार रहता है. बरसों से ‘नोटा’ की मांग थी, पर कोई तैयार नहीं था. पीयूसीएल की एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत 27 सितंबर, 2013 को ‘नोटा’ का अधिकार मिला.
संसद और विधानमंडलों के सामने जो बड़ी लोकतांत्रिक चुनौतियां हैं, उनके अनेक पहलू हैं. मेरी नजर में सबसे बड़ा पहलू है- चुनाव से जुड़ी मौजूदा दलीय व्यवस्था का लोकतांत्रिकरण. जनप्रतिनिधित्व अधिनियम और निर्वाचन आयोग की मौजूदा शक्तियां नाकाफी हैं.
ऐसे में राजनीतिक दलों के विनियमन के लिए ठोस तंत्र बनाने की जरूरत है. शुरुआत होनी चाहिए, सभी दलों को आरटीआइ के दायरे में लाकर. विनियमन का ढीला-ढाला सा जो अधिकार निर्वाचन आयोग को पहले से हासिल है, उसे समुन्नत करके एक समर्थ और सक्षम विनियामक विकसित किया जा सकता है. आयोग, इसकी मांग भी करता रहा है. साथ ही आयोग के सदस्यों की नियुक्ति-प्रक्रिया में सरकार का ‘सर्वाधिकार’ खत्म होना चाहिए.
अभी देश ‘नोटबंदी’ झेल रहा है. कालाधन और भ्रष्टाचार खत्म करने के नाम पर इसे लाया गया. लेकिन, चुनाव में दलों की कॉरपोरेट-फंडिंग पर कोई पहल नहीं हुई. क्या उसे खत्म किये बगैर संसदीय लोकतंत्र और शासन को जनपक्षी और जवाबदेह बनाया जा सकता है?
चुनाव फंडिंग का यह रूप कालेधन के वजूद को कायम रखता है. यह महज संयोग नहीं कि पनामा पेपर्स, माल्या-ललित मामले, स्वीस बैंक सहित अन्य विदेशी बैंकों से कालेधन के मिले ठोस सुरागों और बैंकों के एनपीए जैसे लाखों करोड़ के बड़े मामलों पर कोई पहल करने के बजाय एक रात अचानक नोटबंदी का ऐलान हो गया. ऐसे दौर में अगर संसद में इतना लंबा गतिरोध रहा, तो वास्तविक वजह तो खोजनी होगी. कोई ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का आह्वान कर रहा है, कोई ‘गुब्बारा फोड़ने’ की धमकी दे रहा है. लेकिन, संसदीय लोकतंत्र को ज्यादा जवाबदेह, ज्यादा पारदर्शी और जनपक्षी बनाने के ठोस कदमों पर ये सभी खामोश हैं.