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कास्त्रो- अंतिम महान क्रांतिकारी!
संदीप मानुधने विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद् बीसवीं सदी आधुनिक इतिहास का एक बड़ा मोड़ रही. तीन कारकों ने इसका स्वरूप गढ़ा- पहला, 18वीं सदी से चला आ रहा उपनिवेशवाद जो स्वयं वणिकवाद से प्रेरित रहा (सोना-चांदी संग्रह); दूसरा, औद्योगिक क्रांति की कुछ देशों में चमत्कारी सफलता और तीसरा, इन दोनों की वजह से बन रही […]
संदीप मानुधने
विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद्
बीसवीं सदी आधुनिक इतिहास का एक बड़ा मोड़ रही. तीन कारकों ने इसका स्वरूप गढ़ा- पहला, 18वीं सदी से चला आ रहा उपनिवेशवाद जो स्वयं वणिकवाद से प्रेरित रहा (सोना-चांदी संग्रह); दूसरा, औद्योगिक क्रांति की कुछ देशों में चमत्कारी सफलता और तीसरा, इन दोनों की वजह से बन रही सामाजिक विषमताओं से जन्मा- समाजवाद और उसका अतिरेकी रूप साम्यवाद (कम्युनिज्म).
कुछ देशों में औद्योगिक क्रांति की सफलता के परिणाम दिखने लगे. देश दो गुटों में बंट गये- आधुनिक-औद्योगीकृत और पिछड़े देश. जो आगे बढ़ गये, उन्होंने तकनीक के प्रयोग से बड़ी व खतरनाक सैन्य क्षमताएं विकसित कर लीं और प्रथम विश्व युद्ध के रूप में इसकी परिणति हुई. इस युद्ध का परिणाम कुछ देशों के अति-राष्ट्रवाद के रूप में फलित हुआ और अंततः हिटलर द्वारा सैन्य फैलाव से दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत हुई.
जब जर्मनी व जापान परास्त हुए, तब अमेरिका अविवादित व अजेय विजेता के रूप में उभरा. अमेरिका ने प्रयास किये कि तीसरा विश्व युद्ध न हो इस हेतु एक अंतरराष्ट्रीय ढांचा बने, जिसमें संस्थागत रूप से विभिन्न देशों को मदद मिले और विकास पर बल रहे, सैन्यीकरण पर नहीं.
इसीलिए 1945 से आइएमएफ व विश्व बैंक जैसे संस्थान खड़े हुए और लगने लगा कि मानवता एक सतत विकास व शांति के दौर में पहुंच जायेगी. किंतु मूल मुद्दों पर कभी सहमति बनी ही नहीं थी. वे मुद्दे थे- पूंजीवाद बेहतर या समाजवाद, बाजारवाद बेहतर या कल्याण-राज्य का मानवतावाद और संप्रभु देशों में दखल देना ठीक है या नहीं. इन तीन मुद्दों ने पूरी बीसवीं सदी को परिभाषित किया (1945 से लेकर अंत तक). और 1950 से तो यह साफ हो गया कि सोवियत संघ के साम्यवाद और अमेरिका के ‘निरंकुश’ पूंजीवाद के बीच की वैचारिक लड़ाई कभी भी तृतीय विश्व युद्ध की भीषण परमाणु लड़ाई में तब्दील हो सकती है.
भारत, युगोस्लाविया और मिस्र जैसे देशों ने इस पचड़े से खुद को अलग करते हुए तृतीय विश्व का गुट-निरपेक्ष संगठन बनाया और प्रथम विश्व (अमेरिका व पश्चिम) और द्वितीय विश्व (साम्यवादी देश) को कह दिया कि विकासशील देशों को इस झगड़े में नहीं पड़ना है. लेकिन पूंजीवाद (अमेरिका) और साम्यवाद (सोवियत संघ) का झगड़ा इतना बढ़ा कि शीत युद्ध की धधकती ज्वाला पूरी दुनिया को 1950 से 1991 तक अलग-अलग प्रकारों से झुलसाती रही.
इस सबके बीच, अमेरिका के ठीक पीछे एक ऐसा शख्स उभर कर राजनीति में आया, जो तमाम खतरों और हत्या-प्रयासों के बावजूद भी अगले पांच दशकों तक अमेरिका को चुनौती देनेवाला था. संदेश साफ था- दूसरों के मामलों में दखल मत दीजिये, बाजारवाद को भगवान मत निरूपित कीजिये और वंचित वर्ग को लूटने की व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संस्थागत मत होने दीजिये. यह भयानक स्वप्न अमेरिका को वर्ष दर वर्ष, हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर याद दिलानेवाला था कि सर्वशक्तिमान भी गलतियां करते हैं, बस जरूरत है उन्हें आईना दिखाने की!
फिदेल कास्त्रो की राजनीति और शख्सियत के पांच तत्व उन्हें परिभाषित करते रहे. वे तत्व हैं-
पहला- अपनी जान पर मंडराते खतरे (सीआइए को उन्हें खत्म करने की आधिकारिक मंजूरी थी!) के बाद भी अमेरिका को उसकी गलतियों की याद दिलाने का एक भी मौका न खोना, और अपनी बात संयुक्त राष्ट्र और अन्य मंचों पर मुखरता से घंटों तक रखना. इसने दुनिया भर के गरीब देशों को एक संबल प्रदान किया कि द्वि-ध्रुवीय विश्व में (1991 तक) और फिर एक-ध्रुवीय विश्व में भी सत्य कहने का साहस हो, तो बहुत कुछ हासिल हो सकता है. हालाकि, अन्य देशों ने वैश्विक एजेंसियों के सामने वित्तीय घुटने टेकने के अलावा ज्यादा कुछ किया नहीं, लेकिन प्रतीक के तौर पर कास्त्रो एक ध्रुव तारा बन चमकते रहे.
दूसरा- कास्त्रो लगातार चेतावनी देते रहे कि विश्व वित्त व्यवस्था के जोखिम पूरी व्यवस्था को एक जुआखाना बना चुके थे. 1980 के बाद चली उदारीकरण और वैश्वीकरण की आंधी में ये जोखिम पूरी दुनिया में फैल चुके थे और कास्त्रो कितने सही होंगे इसका सबूत मिला 2007 में अमेरिका के हाउसिंग क्षेत्र के विघटन से, जिसने विश्वभर में मंदी ला दी! उन्होंने ये भी कहा था की उपभोक्तावाद का मौजूदा प्रारूप सारे संसाधनों को खत्म कर देगा. क्या यही हो नहीं रहा है?
तीसरा- कास्त्रो की चेतावनी थी कि जिस पूंजीवाद को हम गले लगा चुके हैं, वह सामाजिक विषमता को एक खतरनाक स्तर पर ले जायेगा. 2015 की ऑक्सफेम रिपोर्ट ने यह साफ कर भी दिया- शीर्ष 62 लोगों की संपत्ति विश्व की आधी आबादी के बराबर है! कास्त्रो तक क्यों जायें- याद करें महात्मा गांधी के शब्द- ‘इस धरती पर हम सब की जरूरतों के लिए सब कुछ है, किंतु किसी एक के भी लालच के लिए कुछ भी नहीं’.
चौथा- अनेक देशों की तथाकथित साम्यवादियों से इतर, क्यूबा ने अलग-अलग देशों में उपनिवेशवादी ताकतों से लड़ रहे स्थानीय क्रांतिकारियों को हमेशा मदद देने का प्रयास किया, वह भी खुले तौर पर, जिसकी घोषणा भी क्यूबा कर चुका था. सत्ता व दौलत की भूखी उपनिवेशवादी ताकतों (ज्यादातर यूरोपीय) को ऐसी खुली और ईमानदार चुनौती मिली, जिसका परिणाम अक्सर सुखद रहा. कांगो, मोजाम्बिक और खासतौर पर अंगोला में, जहां नस्लभेदी दक्षिण अफ्रीकी सेना को ऐसी मार पड़ी कि अंततः 1993 में गोरे शासन को भागना पड़ा! लेकिन, कास्त्रो के लड़ाकों ने कभी भी फल भोगने का प्रयास नहीं किया- वे अपना काम कर हमेशा क्यूबा लौट गये. कथनी और करनी में इतनी समानता और ईमानदारी बिरले ही दुनिया में मिलती है.
पांचवां- सारी दुनिया का बाजारवाद के सामने नतमस्तक होने के बावजूद कास्त्रो ने सर नहीं झुकाया. आज हमें यह समझ में आता है कि कास्त्रो यह साफ देख पा रहे थे कि असीमित लालच मानवता को किस खाई में धकेल देगी.
तमाम आलोचनाओं के बाद भी, यदि हम कास्त्रो को उनकी ईमानदारी और लक्ष्य के प्रति अडिग आस्था के लिए सलाम करेंगे, तो गलत नहीं होगा. बीसवीं सदी का वह महान और अंतिम क्रांतिकारी, जो झुकाया न जा सका और करोड़ों दबे-कुचले समुदायों को बाजारवाद के विरुद्ध ठोस आवाज दे गया.
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