इस साल प्रसिद्ध गीतकार-गायक बॉब डिलेन को साहित्य का नोबेल दिया गया है. जब से उनको पुरस्कार दिये जाने की घोषणा हुई है, दुनियाभर में इस बात को लेकर बहस छिड़ गयी है कि गीतकार को, गायक को नोबेल मिलना चाहिए या नहीं? अंगरेजी में बहस इस बात को लेकर हो रही है कि उनको पहले से ही संगीत के सारे पुरस्कार मिल चुके हैं, ऐसे में साहित्य का नोबेल दिये जाने का क्या औचित्य है? अर्थात् उनकी प्रसिद्धि एक गायक के रूप में अधिक रही है, साहित्यकार के रूप में नहीं.
बॉब डिलेन को नोबेल मिलने के बाद हिंदी पट्टी में अप्रत्याशित रूप से सकारात्मक प्रतिक्रिया देखने में आयी है. इसका स्वागत किया गया है और इस बात को लेकर मांग बढ़ गयी है कि हिंदी में गीत विधा के ऊपर फिर से ध्यान दिया जाना चाहिए, उसकी बहुत उपेक्षा हुई है. हिंदी में गीतकारों को, छंदों में कविता लिखनेवालों को साहित्य की मुख्यधारा में वह सम्मान नहीं मिला, जो उनको मिलना चाहिए था. मुझे याद है सीतामढ़ी नामक गुमनाम से कस्बे में हर साल गोपाष्टमी के दिन गोशाल द्वारा एक कवि-सम्मलेन का आयोजन किया जाता था. जिस साल नीरज, रामनाथ अवस्थी जैसे गीतकार आते थे, उस साल हजारों-हजार लोग उनके गीतों को सुनने के लिए रात-रात भर बैठे रह जाते थे. अपने दादाजी के देहांत के बाद मुझे उनकी एक डायरी मिली थी, जिसमें कुछ छंदबद्ध रचनाएं लिखी थीं- ‘दूर रह कर न कोई बिसारा करे/ मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे…’ मैं बहुत दिनों तक समझता रहा कि ये पंक्तियां दादाजी की हैं. बाद में मैंने पढ़ा कि यह गीत प्रसिद्ध कवि गोपाल सिंह ‘नेपाली’ का है. दादाजी ने कवि-सम्मलेन में उनको सुन कर डायरी में उतारा था, जबकि उनका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं था.
कहने का अर्थ यह है कि गीतों ने हिंदी को उस व्यापक समाज से जोड़ा, साहित्य को उस व्यापक हिंदी समाज से जोड़ा, जिससे तथाकथित ‘गंभीर’ साहित्य आज तक नहीं जुड़ पाया. आज तक इस बात का मूल्यांकन नहीं किया गया कि हिंदी सिनेमा के गीतों ने हिंदी को अखिल भारतीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने में, उसकी व्याप्ति में कितना बड़ा योगदान किया है. आज भी साहिर, शैलेंद्र के लिखे गीतों की पहुंच व्यापक समाज तक है. हाल में ही इतिहासकार रविकांत की किताब आयी है ‘मीडिया की भाषा लीला’, जिसमें उन्होंने हिंदी सिनेमा की भाषा व व्याप्ति को लेकर इन सवालों को उठाया है.
मौजूदा बहस के बीच यह जरूर है कि लोगों का ध्यान गीतों की इस उपेक्षित विधा की तरफ गया है. हिंदी की मुख्यधारा ने हमेशा से उन तमाम लोकप्रिय विधाओं से गुरेज किया, जिनमें गीत भी एक प्रमुख विधा थी. एक निर्माता गोपाल दास नीरज के गीतों से इतना प्रभावित हो गया कि उसने एक फिल्म बनायी ‘नयी उमर की नयी फसल’, जिसमें नीरज का वह मशहूर गीत भी था- ‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे…’ लेकिन इतने लंबे समय से गीत लिखनेवाले नीरज को आज तक हिंदी की मुख्यधारा का कोई बड़ा साहित्यिक पुरस्कार नहीं मिला.
यह बहस अपनी जगह है कि साहित्य लिखित होना चाहिए या मौखिक, पुरस्कार उन्हीं लेखकों को दिये जाने चाहिए, जो किताबें लिखते हैं या उनको भी, जो अपने लिखे को गा-गा कर आम जन तक पहुंचाते हैं. लेकिन, इसमें कोई संदेह नहीं है कि बॉब डिलेन को मिले नोबेल पुरस्कार ने दुनियाभर के साहित्यिकों का ध्यान इस तरफ खींचा है कि किसी खास तरह से लिखना ही साहित्य नहीं होता है. उसकी चौहद्दी, उसकी सीमाओं पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है.
प्रभात रंजन
कथाकार
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