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आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति
विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं युद्ध और प्यार में सब कुछ जायज है. लगता है हमारे नेताओं ने इसमें एक शब्द और जोड़ दिया है- राजनीति. वे मानने लगे हैं कि राजनीति में भी सब कुछ किया जा सकता है, कहा जा सकता है. कहते हैं कि एक शब्द बोलने से पहले सौ बार […]
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
कहते हैं युद्ध और प्यार में सब कुछ जायज है. लगता है हमारे नेताओं ने इसमें एक शब्द और जोड़ दिया है- राजनीति. वे मानने लगे हैं कि राजनीति में भी सब कुछ किया जा सकता है, कहा जा सकता है. कहते हैं कि एक शब्द बोलने से पहले सौ बार सोचा जाना चाहिए. तलवार के वार से गहरी होती है शब्द की मार.
समय के साथ तलवार से लगा घाव भर सकता है, पर शब्द की मार बहुत भीतर तक चोट पहुंचाती है. इसीलिए अपशब्द सुन कर आदमी तिलमिला जाता है. जैसे आजकल भाजपा वाले तिलमिलाये हुए हैं. पाकिस्तान में घुस कर किये गये हमारी सेना के वार के संदर्भ में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी का प्रधानमंत्री मोदी पर यह शाब्दिक हमला कि वे हमारे सैनिकों के खून की दलाली कर रहे हैं, तिलमिला देनेवाला हमला है. व्यापार में दलाली शब्द भले ही जायज हो, पर राजनीतिक हमले के लिए जब इस शब्द का उपयोग होता है, तो यह किसी गाली से कम नहीं है. यह बात दूसरी है कि भाजपा वाले इसका पूरा राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं.
कांग्रेस के पास राहुल गांधी के बचाव के लिए सिर्फ यही तर्क है कि उनके शब्दों को नहीं, भावों को समझ जाये. राहुल ने सिर्फ यह कहना चाहा था कि प्रधानमंत्री मोदी भारतीय सेना के शौर्य का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं. यह पहली बार नहीं है जब कांग्रेस के किसी नेता पर ऐसा आरोप लगा है. स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कभी नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा था और उन्हें तथा कांग्रेस पार्टी को, इसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी थी. अब भाजपा वैसी ही कीमत वसूलने की कोशिश में है. कांग्रेस सिर्फ ‘डैमेज कंट्रोल’ की कोशिश कर सकती है.
इस कोशिश का एक तरीका पलटवार करने का है. और भाजपा में पलटवार का मौका देनेवालों की कमी नहीं है. एक भाजपाई सांसद ने राहुल गांधी से अपने पिता का प्रमाण देने की बात कह कर ऐसा ही एक मौका कांग्रेस को दे दिया है. एक और बड़े नेता ने कांग्रेस के उपाध्यक्ष के डीएनए में खोट का जुमला उछाल दिया था. राजनीतिक प्रवक्ताओं की तो यह आदत-सी बन गयी है कि जब भी ऐसा कोई आरोप लगता है, उसका कोई उत्तर देने के बजाय आरोप-प्रत्यारोपों की झड़ी लग जाती है. तब किसी को इस बात की चिंता नहीं होती कि कब-कौन-कैसी मर्यादा तोड़ रहा है.
आखिर क्यों अकसर हमारे नेताओं की जबान फिसल जाती है? क्यों उन्हें यह कहना पड़ता है कि जो उन्होंने कहा उसका वह मतलब नहीं लगाया जाना चाहिए, बल्कि उनकी भावनाओं को समझने की कोशिश की जानी चाहिए? पूछा जाना चाहिए हमारे राजनेताओं से कि जब वे अपने प्रतिद्वंद्वियों की मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं, तो उन्हें क्यों यह याद नहीं रहता कि वे मात्र राजनीतिक विरोधी नहीं हैं. उन्हें कभी-कभी मिलना-बतियाना भी होता है.
क्या तब उन्हें कोई संकोच नहीं होता कि कल जिसे गालियां दे रहे थे, आज उसी के साथ गलबहियां डाले बैठे हैं! इन नेताओं को मोटी खाल वाला कहा जाता है. शायद इसीलिए गालियां उन्हें राजनीतिक लाभ उठाने के लिए उपयोगी जुमले लगती हैं.
अकसर राजनीतिक दलों से जुड़े व्यक्तियों द्वारा एक वाक्य बोला-सुना जाता है- इस बात पर राजनीति नहीं होनी चाहिए. पाकिस्तान के खिलाफ हुई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के बारे में भी राजनीति करनेवाली यह बात भाजपा और कांग्रेस दोनों कर रही हैं. सर्जिकल स्ट्राइक के प्रमाण के संदर्भ में भाजपा कांग्रेस पर राजनीति करने का आरोप लगा रही है और कांग्रेस भाजपा को सेना की इस कार्रवाई का अनुचित लाभ उठाने का दोषी बता रही है. जहां तक राजनीतिक लाभ की बात है, भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को इस कार्रवाई का लाभ तो मिलेगा ही.
कार्रवाई यदि विफल हो जाती, तो नुकसान भी उसे ही भुगतान पड़ता. सवाल यह है कि हमारे राजनेताओं ने राजनीति को इतनी घटिया चीज क्यों बना दिया है कि राजनीति करनेवाली बात गाली लगने लगती है? एक साफ-सुथरी राजनीति घटिया आरोपों वाली राजनीति का विलोम होती है. उसमें उन मर्यादाओं का खयाल रखा जाता है, जो हमारे आज के राजनेताओं को याद नहीं रहतीं.
इस संदर्भ में महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस के रिश्तों को याद किया जाना चाहिए. आजादी की लड़ाई के इतिहास का एक चर्चित अध्याय है इन दोनों नेताओं का वैचारिक मतभेद. कांग्रेस अध्यक्ष-पद के चुनाव में सुभाष चंद्र बोस को हराने के लिए गांधीजी ने हर संभव प्रयास किया था.
सुभाष बाबू के जीतने के बाद भी उन्हें काम नहीं करने दिया गया. तब सुभाष ने विदेश में जाकर आजाद हिंद फौज खड़ी की थी. वहां से जो पहला संदेश उन्होंने भारत की जनता के नाम भेजा, उसमें उन्होंने गांधीजी को राष्ट्रपिता कहा था. यह पहली बार था, जब किसी ने गांधीजी को यह संबोधन दिया था. गांधीजी के प्रति सुभाष की भावनाओं में राजनीतिक मतभेद कहीं आड़े नहीं आया. यह है राजनीतिक मतभेद का आदर्श उदाहरण. हमारे आज के नेताओं को यह उदाहरण क्यों याद नहीं रहना चाहिए?
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