।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
हिंदीभाषी समाज में वसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजा तो होती ही है, सरस्वती-पुत्र महाप्राण निराला की जयंती भी सोल्लास मनायी जाती है, क्योंकि उनका जन्म 1896 में वसंत पंचमी के दिन ही महिषादल (बंगाल) में हुआ था. आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री उनसे दो दशक छोटे थे, मगर उनका जन्म वसंत पंचमी से तीन दिन पहले (15 फरवरी,1916) हुआ था. प्रारंभ में वे संस्कृत में ही लिखते थे. हिंदी में वे निरालाजी की प्रेरणा से आये. निरालाजी के प्रति शास्त्री जी की भक्ति अद्भुत थी. उन्होंने अपने घर का नाम ‘निराला निकेतन’ रख लिया, अपने रहन-सहन, वेश-भूषा सब पर निराला जी की स्पष्ट छाप पड़ने दी; और सबसे बड़ी बात यह है कि अपना जन्मदिन न मना कर, वे हर साल वसंत पंचमी के दिन निराला जयंती मनाते थे, जिसमें रात भर आसपास के कविगण काव्यांजलि देते थे. हमने निराला जी को तो नहीं देखा, मगर कद-काठी, आचार-विचार में वे कैसे होंगे, इसका अनुमान शास्त्रीजी के आचरण से कर लेते थे.
चार वर्ष की अवस्था में ही शास्त्री जी की मां का देहांत हो गया था. पिता पंडित रामानुग्रह शर्मा संस्कृत के प्रकांड पंडित, क्रोधी और कठोर अनुशासनप्रिय थे. उन्होंने ही गुरु व मां की दोहरी भूमिका निभायी. पिता-पुत्र का आपसी संवाद संस्कृत में होता था. एक बार बातचीत में किशोर पुत्र ने गलत धातुरूप का प्रयोग किया और पिताजी के झन्नाटेदार तमाचे ने उसे घर छोड़ कर भाग जाने के लिए उकसा दिया. उम्र बारह वर्ष. चौदह कोस पैदल चल कर पहुंचे दधपा गांव के गोविंद विद्यालय. वहां प्रधानाध्यापक पं दामोदर मिश्र ने जो गुरुमंत्र दिया, उसे शास्त्री जी ने ‘हंसबलाका’ में उद्धृत किया है-‘कोटि-कोटि प्रयत्न करके भी तुम बड़े लक्ष्मीवान नहीं हो सकते, किंतु ज्ञान की किसी एक शाखा में अलौकिक निपुणता-प्राप्त, अद्वितीय हो सकते हो.’ कुछ दिनों के बाद वे काशी जाकर काशी हिंदू विवि के प्राच्य महाविद्यालय में संस्कृत पढ़ने लगे.
शास्त्रीजी अपने दौर के अंतिम उद्भट कवि थे, जिनके व्यक्तित्व का एक सिरा शास्त्र से जुड़ता है और दूसरा लोक से. गया जिले के सुदूर वनप्रांत में बसे छोटे-से ‘मैगरा’ गांव में जन्मे, मुजफ्फरपुर के चतुभरुज स्थान जैसे बदनाम मुहल्ले में ‘निराला निकेतन’ बना कर, जीवनसंगिनी छायाजी और अपने प्रिय गायों, सांड़ों, कुत्ताें-बिल्लियों के साथ अहर्निश संवाद करते हुए निरंतर साहित्य-साधना करनेवाले आचार्यजी लंबी बीमारी के बाद 7 अप्रैल, 2011 को विदा हो गये. सभ्य मानव समाज की पशुता से क्षुब्ध होकर पिछले चार दशकों से पूरी तरह गो-श्वान-मार्जार परिवार में रम गये थे. हिंदी के समीक्षकों ने भी उनके विशाल कर्तृत्व का कभी उचित मूल्यांकन नहीं किया. नये संस्कृत ज्ञान-विहीन समीक्षकों को उनका भाषा-सौष्ठव, उनका सघन पार्थिव रूपक पल्ले ही नहीं पड़ा. दरअसल, शास्त्री जी जितने बड़े कवि हिंदी के हैं, उतने ही बड़े कवि संस्कृत के भी हैं.
रचनाकार के रूप में उनका स्वतंत्र आलोकवृत्त है, जिसे किसी साहित्यिक वाद या वृत्ति या समुदाय में परिसीमित करना असंभव है. उनका व्यक्तित्व शिशिर ऋतु में हिमाच्छादित देवदारु की तरह था, जिसके हरेपन को निरखने के लिए बर्फ की परतों को थोड़ा हटाना पड़ता है. लंबी-चौड़ी प्रभावशाली आकृति, घुंघराले बाल, विशाल ललाट, तीखे नाक-नक्श, नये गुड़ की तरह खुशबू भरा मीठा स्वर, ऊपर से नीचे तक लकदक सफेद धोती-कुर्ता, चेहरे पर एक वक्रोक्ति-पूर्ण मुस्कान.. मुजफ्फरपुर की सड़कों पर जब वे अपने निर्धारित रिक्शे पर बैठ कर निकलते थे, तो उस ‘मर्दे मोमिन’ के सामने आनेवाले सभी दूकानदार, पैदल चलते लोग ‘बाअदब’ की मुद्रा में श्रद्धा से झुक जाते थे. और शास्त्री जी अपने सहज व्यंग्यात्मक शब्दों से सब पर स्नेह छिड़कते हुए आगे बढ़ जाते थे. जिसे वे जितना मानते थे, उसे वे उतना ही व्यंग्य वाणों से नवाजते थे. इसका अनुभव उनके घर जानेवाले प्रत्येक व्यक्ति करते थे, चाहे वे पूर्व प्रधान मंत्री चंद्रशेखर हों, या मूर्धन्य आलोचक नामवर सिंह या कोई और. विशुद्ध साहित्यकार होते हुए भी मुजफ्फरपुर में उनका यह प्रताप था कि जो भी जिलाधिकारी या कमिश्नर नियुक्त होता था, वह सबसे पहले ‘निराला निकेतन’ जाकर शास्त्रीजी से आशीष लेता था. वहां उसका स्वागत फूल-पात से नहीं, कांट-कुश से होता था.
कविता की शब्द-शक्तियों में सबसे उच्च स्थान व्यंजना को दिया गया है. शास्त्री जी हमेशा व्यंजना में ही बोलते थे. जिसने उन्हें अभिधा में लिया, वह गया. मुजफ्फरपुर शहर के किसी कोने में खड़े रिक्शेवाले से कोई व्यक्ति ‘शास्त्री जी’ या ‘कवि जी’ का पता पूछता, तो वह सीधे धड़धड़ाते हुए निराला निकेतन पहुंचा देता. नगर का आम आदमी शास्त्री जी को ‘कवि जी’ के रूप में ही जानता और मानता था.
इसके बावजूद उन्हें कोई पद्म सम्मान नहीं मिला. व्यंग्यकार शरद जोशी ने कभी टिप्पणी की थी कि पद्मश्री क्या है, एक चौका मारो पद्मश्री और एक छक्का मारो पद्मविभूषण मिल जायेगा. स्वतंत्र भारत में दिये गये सरकारी पद्म सम्मानों की यदि फेहरिस्त देखी जाये, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सम्मान प्रखर साहित्यकारों के लिए नहीं है. समाज में वह साहित्यकार ही ज्यादा प्रतिष्ठित है, जो ‘पद्मश्री-रहित’ है. साहित्यकार विचारों के साथ चलता है, न कि सरकार के साथ. और सरकार उन्हें मानती है जो विचारों से दूर रहे. यदि विचारों और परिकल्पनाओं के जनक सम्मानित होते, तो पद्म-सम्मान पानेवालों में सबसे ज्यादा संख्या महान वैज्ञानिकों और महान साहित्यकारों की होती. शास्त्रीजी को पद्मश्री देनेका निश्चय गृह मंत्रलय के अधिकारियों ने तब किया, जब उन्हें कायदे से पद्मविभूषण दिया जाना चाहिए था. इसीलिए जब जिलाधिकारी उन्हें यह ‘खुशखबरी’ देने गया, तो उन्होंने उसे डांट कर भगा दिया. हिंदी के अनेक कृती साहित्यकारों ने पद्म सम्मान पाने के बजाय ठुकराने में ज्यादा गौरव अनुभव किया. निरालाजी को तो यह सम्मान देने की सरकार ने हिम्मत ही नहीं की .
शास्त्री जी की खुद्दारी उनके जीवन की कंटीली झाड़ियों की उपज है. एक गीत में उन्होंने स्वयं कहा है, ‘अहंकार मेरा चिरायु हो, कल्याणी प्रतिभा हो मेरी.’ पिछले दिनों उनकी जीवनसंगिनी छायाजी भी नहीं रहीं. निराला निकेतन हर वसंत पंचमी को अपने उस महाबैरागी रचनाकार को उनके ही एक गीत के माध्यम से याद करने के लिए अब बाध्य है:
नयन में प्राण में तुम हो। गगन में गान में तुम हो।।