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कंधे पर वह लाश किसकी थी?
रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार सुधीजन, भद्रजन और शिक्षित-सुशिक्षित, सभ्य-सुसंस्कृत व्यक्ति यह कहेंगे कि ओड़िशा के कालाहांडी जिला के तेरह प्रखंडों (ब्लॉक) में से एक धुआमल रामपुर प्रखंड के 275 गांवों में से एक गांव मेलाघर के दाना मांझी की बयालिस वर्षीय पत्नी अमंगदेई की लाश उसके कंधे पर थी. चार कंधे शव ढोते हैं. तीन कंधे […]
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
सुधीजन, भद्रजन और शिक्षित-सुशिक्षित, सभ्य-सुसंस्कृत व्यक्ति यह कहेंगे कि ओड़िशा के कालाहांडी जिला के तेरह प्रखंडों (ब्लॉक) में से एक धुआमल रामपुर प्रखंड के 275 गांवों में से एक गांव मेलाघर के दाना मांझी की बयालिस वर्षीय पत्नी अमंगदेई की लाश उसके कंधे पर थी.
चार कंधे शव ढोते हैं. तीन कंधे कहां गये? सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे नेता राहुल गांधी, जयराम रमेश और अरुंधती राय के कंधों को शेष तीन कंधे कहते हैं, क्योंकि इन तीनों ने वहां के आदिवासियों की बात की, कुछ किया नहीं. क्या वह लाश हमारे गणतंत्र और व्यवस्था की नहीं थी, जो आजादी के सत्तरवें वर्ष में जिस स्थिति में है, उसे समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है.
हमारी मानवीय संवेदना निरंतर गायब हो रही है. कालाहांडी भारत में है और वह देश की पहचान भी है. 32 वर्षीय टीवी रिपोर्टर अजीत सिंह ने अगर इस ‘दृश्य’ को कैमरे में नहीं उतारा होता, तो यह स्थानीय खबर भी नहीं बन पाती. जिस व्यवस्था में जीवित सामान्य व्यक्तियों की कोई चिंता नहीं है, उस व्यवस्था में मृतकों की किसे चिंता होगी? 23 अगस्त के दो-चार दिन बाद रांची में आदिवासी साहित्य पर राष्ट्रीय आयोजन हुआ. चिंता में आदिवासी समुदाय और उनका जीवन ही था. उस आयोजन और राष्ट्रीय समागम में क्या किसी आदिवासी कवि, लेखक, संपादक, विचारक, बुद्धिजीवी ने दाना मांझी का कंधा देखा? क्यों नहीं देखा? दोषी सरकारों और जो व्यवस्था-जीवी, पोषक, समर्थक हैं, उसे न आदिवासियों की चिंता है, न सामान्य जन की. ओड़िशा में अस्सी के दशक में कांग्रेस की सरकार थी.
1985 में ओड़िशा नुआपाड़ा जिला के खरियार ब्लॉक की एक महिला ने वनिता को बोलांगीर जिला के एक अंधे व्यक्ति को तीन किलो चावल के लिए, जिसे वह दो बच्चों को खिला सके, चालीस रुपये में बेच दिया था. ओड़िशा के सैकड़ों आदिवासियों ने पांच-दस से लेकर सौ-दो सौ रुपये में जिस तरह बच्चों को बेचा है, वह ‘महान भारत’ की वास्तविक तसवीर पेश करता है. प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री बदलते हैं, पार्टियां बदलती हैं, सरकारें बदलती हैं, पर व्यवस्था बनी रहती है. झांसा दिया जाता है कि सरकार आदिवासियों के हित में है, पर ऐसा कुछ नहीं दिखता.
दाना मांझी जब दस किलोमीटर तक पैदल कंधे पर अपनी पत्नी की लाश रख कर चल रहा था, अपनी चौदह वर्षीय बेटी चांदनी के साथ, तब उसे देख कर सड़क किनारे खड़े लोग उसकी सहायता के लिए आगे क्यों नहीं बढ़े? हमारी मानवीय संवेदना कब, कैसे, क्यों नष्ट हो गयी? हमारे अंदर सामाजिक चेतना का अभाव जिन कारणों से होता है, उन्हें दूर किये बिना सामाजिक चेतना के ह्रास को रोका ही नहीं जा सकता. ऐसे दृश्यों और ऐसी घटनाओं के प्रति हम तटस्थ होते जा रहे हैं, सामान्य व्यक्ति से लेकर कवि-लेखक-बुद्धिजीवी तक.हमारी नीतियां और योजनाएं मानवीय-चेतना के विकास में बाधक हैं.
बहरीन के प्रधानमंत्री प्रिंस खलीफा बिन सलामत का इस दृश्य को देख कर विचलित होना, उन लोगों के लिए आश्चर्यजनक था, जो इस दृश्य को देख कर विचलित नहीं हुए थे. अंतरराष्ट्रीय खबर बनने के बाद वह लाश पति के कंधे से उतर कर सबके पास चली गयी. दाना मांझी गरीबी रेखा के नीचे हैं. कालाहांडी की 72 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है.
इनमें से 50 प्रतिशत लोगों को ही आवास उपलब्ध है. दाना मांझी का लगभग एक वर्ष से मनरेगा का 4,064 रुपये बाकी है. उसे खाद्य सुरक्षा कानून के तहत पांच किलो प्रति व्यक्ति राशन हर महीने मिलता है. इंदिरा आवास योजना या प्रधानमंत्री आवास योजना का उसे कोई लाभ नहीं मिला है.
उसके पास कोई स्वास्थ्य बीमा कार्ड नहीं है. नजदीक के हेल्थ सेंटर में कोई डॉक्टर नहीं है. मेलाघर में पल्लीसभा (ग्रामसभा) की अब तक कोई बैठक नहीं हुई है. दाना मांझी के पास एंबुलेंस के लिए पैसे नहीं थे. शवदाह के लिए भीख मांगनेवाले हमारे देश में हैं. इस घटना के बाद ओड़िशा में ही इससे मिलती-जुलती कई घटनाएं हुई हैं. मलकानगिरी के घुसापल्ली गांव की वर्षा की लाश एंबुलेंस ड्राइवर ने रास्ते में रुकवायी.
बहरीन के प्रधानमंत्री आर्थिक सहायता करें और हमारे देश के महानुभाव चुप रहें, यह संभव नहीं है. कांग्रेस ने न्याय की मांग को लेकर पदयात्रा की, नवीन पटनायक ने जिम्मेवार लोगों पर कड़ी कार्रवाई की बात कही. प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत अब दाना मांझी को पक्का घर मिलेगा. सुलभ इंटरनेशनल ने उसके खाते में पांच वर्ष के लिए पांच लाख रुपये जमा किये हैं, वह दस हजार प्रतिमाह तीन बेटियों की शिक्षा के लिए देगा. पीएमओ भी सक्रिय है.
सबकी आंखें खुल गयी हैं. सवाल है कि कब तक खुली रहेंगी? आज जो वहां के विधायक, सांसद हैं, क्या वे हमेशा जगे रहेंगे? व्यवस्था कायम रहेगी और यह सवाल जिंदा रहेगा कि दाना मांझी के कंधे पर जो लाश थी, क्या उसकी पत्नी की ही थी? सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि हम किसी घटना या दृश्य को कैसे देखते हैं?
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