तीन सालों तक भारतीय रिजर्व बैंक की कमान संभालने के बाद रघुराम राजन पदमुक्त हो गये हैं. उनके कार्यकाल में इस केंद्रीय बैंक की संपदा में 91 अरब डॉलर की बढ़ोतरी हुई है. विदेशी मुद्रा भंडार का स्तर सितंबर में इस हद तक पहुंच चुका है कि उससे देश के 12़ 4 महीनों के आयात का भुगतान किया जा सकता है, जबकि 2013 के सितंबर में यह आंकड़ा महज 8.1 महीने का था. रुपये की की गिनती दुनिया की बेहतर मुद्राओं में हो रही है.
ब्याज दरों और मुद्रास्फीति को लेकर राजन का सरकार से टकराव भी होता रहा, वहीं बैंकों के बढ़ते कर्ज तथा लेनदारों पर उनके तीखे तेवर भी चर्चा में रहे. अपनी समझ और सलाह को सार्वजनिक रूप से सरल भाषा में प्रस्तुत करने की क्षमता के कारण उनकी बातें आम बहसों में भी असर डालती रहीं. जाते-जाते रघुराम राजन ने जो अहम बातें रेखांकित की हैं, उन पर वित्तीय जगत, सरकार और लोगों को ध्यान अवश्य देना चाहिए.
कर्जदारों के पास बैंकों की फंसी पूंजी छह लाख करोड़ रुपये का आंकड़ा छू चुकी है और पिछले वित्त वर्ष में सरकारी बैंकों का घाटा 18 हजार करोड़ रुपये के स्तर तक पहुंच चुका है. इस बात से किसी को इनकार नहीं है कि इससे अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने की कोशिशों में रुकावट आ रही है. राजन का मानना है कि इस स्थिति को मौजूदा वित्त वर्ष में बदलना जरूरी है. मुद्रास्फीति बढ़ने से आम जनता से लेकर निवेशक तक प्रभावित होते हैं.
इसे नियंत्रित करना राजन की प्राथमिकता रही थी और उन्होंने अपने आखिरी बयानों में भी इस पर जोर दिया है. ऐसे समय में जब महत्वपूर्ण संस्थाओं की स्वायत्तता में सरकारी हस्तक्षेप एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है, उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि रिजर्व बैंक की स्वतंत्रता की रक्षा की जानी चाहिए और नीतिगत मामलों में जरूरत पड़ने पर सरकार की राय से असहमत होने या उसे नहीं मानने के अधिकार को भी अक्षुण्ण रखा जाना चाहिए. उम्मीद है कि संबंधित पक्ष रघुराम राजन की बातों को पर गंभीरता से विचार करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की दिशा में अग्रसर होंगे.