करीब तीन महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने अखिल भारतीय सेवा से जुड़े कुछ शीर्षस्थ अधिकारियों की जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए केंद्र और राज्य स्तर पर सिविल सर्विस बोर्ड बनाने और इस बोर्ड के जरिये ही आइएएस, आइपीएस अधिकारियों के स्थानांतरण, पदस्थापन और प्रोन्नति के मामले तय करने का निर्देश दिया था. केंद्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग की नयी नियमावली में सुप्रीम कोर्ट के इसी निर्देश की गूंज सुनायी दे रही है.
नियमावली के हिसाब से आइएएस, आइपीएस और आइएफओएस अधिकारी अपने पदस्थापन की जगह पर कम से कम दो साल गुजार सकेंगे. इससे पहले उनका स्थानांतरण या फिर राज्य से बाहर कहीं और प्रतिनियुक्त नहीं हो सकेगी. आम तौर पर केंद्र या राज्यों में राजनीतिक सत्ता के बदलते ही शीर्ष नौकरशाह भी बदलते हैं. कोई नौकरशाह यदि राजनेता से सुर न मिलाये या स्थानीय शक्ति-समीकरण को न्याय के पक्ष में होकर दुरुस्त करने का प्रयास करे, तो राजनेता स्थानांतरण के औजार का इस्तेमाल करके उसे तुरंत ही दूसरी जगह रवाना कर देते हैं.
स्थानीय सत्ता-समीकरण को नाजायज पाकर कानून के सहारे रोकने-टोकने की कोशिश करने पर शीर्षस्थ नौकरशाही के साथ सत्ताधारी राजनीति क्या बरताव करती है, इसका उदाहरण है दुर्गाशक्ति नागपाल मामला. कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग की नियमावली में विधान है कि शीर्ष पदों पर काम कर रहे नौकरशाह का स्थानांतरण दो साल की अवधि से पहले तभी किया जा सकेगा, जब सिविल सर्विस बोर्ड इसकी सिफारिश करे. ईमानदार अधिकारी इस फैसले से राहत की सांस ले सकते हैं, लेकिन शीर्षस्थ नौकरशाहों की संख्या से निचले पदों पर बैठे अधिकारियों की तादाद कई गुना ज्यादा है और रोजमर्रा के प्रशासन में यह नौकरशाही कहीं ज्यादा प्रभावी है.
आइपीएस अधिकारी की तुलना में किसी थानेदार का रसूख उसके इलाके में ज्यादा चलता है और अकसर लोगों के लिए जिला कलेक्टर से कहीं ज्यादा दुरूह ट्रेजरी ऑफिस के बड़े बाबू से निपटना साबित होता है. स्थानीय अधिकारियों के साथ स्थानीय राजनीति के गंठजोड़ को जब तक अलग करने की कोशिश नहीं की जाती, रोजमर्रा के प्रशासन में भ्रष्टाचार का खात्मा और जवाबदेही की वापसी बहुत कठिन है.