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आजादी की राह पर…

सुजाता युवा कवि एवं लेखिका शहर की सीमा से लगे किसी पुराने कॉलेज में इतिहास, राजनीति विज्ञान, हिंदी की कक्षा में बैठी बेहद साधारण निम्नमध्यवर्गीय घरों से आनेवाली लड़कियां! कुछ कुपोषित, कुछ सहमीं, कुछ एहसान तले दबी हुईं कि उन्हें पढ़ने भेजा गया है. आजादी के सत्तर साल बाद भी पढ़ने की चुनौतियां अभी लड़की […]

सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
शहर की सीमा से लगे किसी पुराने कॉलेज में इतिहास, राजनीति विज्ञान, हिंदी की कक्षा में बैठी बेहद साधारण निम्नमध्यवर्गीय घरों से आनेवाली लड़कियां! कुछ कुपोषित, कुछ सहमीं, कुछ एहसान तले दबी हुईं कि उन्हें पढ़ने भेजा गया है. आजादी के सत्तर साल बाद भी पढ़ने की चुनौतियां अभी लड़की के सामने कम नहीं हुई हैं. एक लड़की एक दिन बताने लगती है कि ट्यूशन पढ़ने जाते हुए कई दिनों तक उसका पीछा किया कुछ लड़कों ने और घर में बताते ही कोचिंग छुड़वा दी गयी. हिम्मत बंधी, तो कई लड़कियों ने सुनाई ऐसी ही कहानी कि पढ़ाई छूटने के भय से वे अपने उत्पीड़न की बात घर में नहीं कहतीं. वे समझती हैं कि कम-से-कम देहरी से बाहर निकलते हुए वे अपना होना महसूस कर पाती हैं.
भले लाख सुरक्षित हो घर की चहारदीवारी, लेकिन आजाद एकदम नहीं. इसलिए जब वे कॉलेज के लिए घर से निकलती हैं, तो सड़क थोड़ी-सी जगह देकर, बसें आत्मविश्वास और जरा अपमान भी देकर आजाद करती हैं. सर्दी में आसमान कभी खुली धूप देकर और गरमी में बारिश में भिगाता हुआ, हवाएं दुपट्टे उड़ा कर और कैंपस अपनी बंद दीवारों में दे देते हैं सांस भर आजादी. वे लौटती होंगी घर, तो कुछ सपने जरूर होते होंगे उनके साथ, कुरते के किनारे खरपतवार की तरह चिपके हुए.
मेट्रो ट्रेन के जनाना डिब्बे से किसी लड़के को हड़का कर निकाल दिया जाता है, तो जैसे एक पल को ‘सुल्ताना का सपना’ सच होने लगता है. तसलीमा नसरीन लिखती है- जबकि स्त्री का कोई देश नहीं तो ‘यह स्त्री-देश है. पाप और बुराई से मुक्त!’ अपनी एक कहानी में यह सपना लिखनेवाली बेगम रुकैया सखाबत हुसैन बरबस याद आती हैं, 1880 में जन्मी बंगाल की प्रमुख स्त्रीवादी लेखिका, विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता. ‘सुल्ताना का सपना’ उस स्त्री-देश का सपना है, जिसे स्त्रियों ने संवारा है, स्त्रियां आत्मनिर्भर हैं, वे प्रयोग करती हैं, खोज करती हैं और पुरुषों को ‘मर्दाने’ में बंद रखती हैं. उनके पास अपना तर्क है, भाषा उन्हें तर्क देती है- किसी को हानि न पहुंचानेवाली ऐसी सरल स्त्रियों को बंद करके रखना और पुरुषों को आजाद छोड़ देना अन्यायपूर्ण नहीं है! रुकैया स्त्रियों के सामाजिक प्रशिक्षण के तहत होनेवाले मानसिक अनुकूलन की ओर संकेत करती हैं. सुल्ताना के सपने के देश में पुरुष पर्दे के आदी हो चुके हैं और उन्हें कुछ भी असहज नहीं लगता.
सौ बार सोचने के बाद फोन पर 1091 नंबर घुमा कर छेड़खानी की शिकायत करनेवाली लड़की क्यों न चाहें अपना देश. क्योंकि शोषण, बलात्कार, एसिड अटैक, दहेज-हत्याओं और घरेलू हिंसा जैसे अनगिनत जेंडर-अपराधों से मिलनेवाला मानसिक कष्ट और अपमान इसे जन्म देता है, इसलिए एक पल को यह यूटोपिया सुंदर लगता है, लेकिन उग्र-स्त्रीवाद की ओर जाते हुए यह धीरे-धीरे डराने लगता है.
डर यह कि एक की आजादी अनिवार्यत: दूसरे की गुलामी से ही क्यों जन्मनी चाहिए? सपने की टेक्निक से इसे समझा सकना कितना सरल है. मान लीजिए कि ऐसा हो ही जाये कि स्त्रियों का देश हो, जिसमें विज्ञान, तकनीक, राष्ट्रीय सुरक्षा सब कुछ स्त्रियां देखती हैं और पुरुष ‘मर्दाने’ में बंद रहते हैं तो? अगर यह भय उपजता है, तो कहानी सफल होती है. लेखिका सफल होती है.
पढ़ने-लिखनेवाली स्त्री की पहली चिंता आजादी को लेकर है. स्व-चेतना को लेकर है. स्त्री-जाति के उत्पीड़न का दुख उसकी लेखनी में जाहिर होता है. 19वीं सदी के पहले दशक में जन्मी राशुंदरी देबी अपनी आत्मकथा लिखनेवाली पहली भारतीय और पहली बंगाली स्त्री हैं.
उनकी आत्मकथा ‘आमार जीबोन’(1867) भले ही सुल्ताना के सपने की तरह कोई स्त्री-यूटोपिया नहीं बुनती, न ही स्त्री की सहज-प्राकृतिक जिज्ञासाओं और कामनाओं का कथन करती है, लेकिन 200 साल पहले कोई स्त्री अपने जीवन में 12 प्रसवों के बीच महज चैतन्य भागवत पढ़ पाने के लिए छुप-छुपा कर पढ़ना-लिखना सीखती है, तो यह मामूली बात नहीं रह जाती. जिस वक्त समाज में यह धारणा रही कि जो स्त्री पढ़ेगी, वह अपने और अपने पति के लिए अपशकुन लायेगी, उस वक्त में राशुंदरी का पढ़ना और अपनी आत्मकथा लिखना स्व-चेतन होना है. अपने समय के अंधविश्वासों के खिलाफ खड़े होना है.
1858 में जन्मी पंडिता रमाबाई ने न केवल अंतर्जातीय विवाह किया, बल्कि जीवन के उत्तरार्द्ध में ईसाई धर्म अपना लिया. आर्य महिला समाज की स्थापना करनेवाली समाज सुधारक रमाबाई ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू स्त्री का जीवन’ में हिंदू स्त्री के जीवन के अंधेरे पक्षों को उजागर किया. हिंदू प्रभुत्व वाले समाज में उच्च कुलीन हिंदू स्त्री का जीवन भी कम कष्टकर और नारकीय नहीं रहा.
सावित्रीबाई फुले का 9 वर्ष की आयु में 1840 में ज्योतिराव फुले के साथ विवाह हुआ. भारतीय स्त्रीवादियों में सावित्रीबाई अग्रणी हैं. लड़कियों के विद्यालय के लिए अध्यापिका चाहिए थी, लेकिन रूढ़िवादी समाज की धमकियों के बावजूद सावित्रीबाई ने अपनी पढ़ाई पूरी की और 1948 में ज्योतिराव फुले के साथ मिल कर पुणे में लड़कियों के लिए स्कूल खोला.
स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में सावित्रीबाई का योगदान बेहद महत्वपूर्ण है. वे कवि-हृदय थीं. अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने स्त्रियों की तत्कालीन सामाजिक दशा को तो बयान किया ही, साथ में अशिक्षा को दलित समाज का दुश्मन माना. उनकी एक कविता में कुछ सहेलियां संवाद करती हैं- पढ़ना जरूरी है या खेलना या घर का कामकाज? और अंत में वे सब सहमत होती हैं कि सबसे पहले पढ़ाई, फिर खेलकूद और फिर वक्त मिले तो घर की साफ-सफाई. वह ऐसा समय था, जब स्त्री का पढ़ना-लिखना गैर-परंपरागत ही नहीं, बल्कि जातीय-लैंगिक भेदभाव से ग्रस्त समाज में खुला विद्रोह था. यहां एक स्त्री सफल होती है.
शिक्षा स्त्री के हाथ में लगी सबसे बड़ी कुंजी है और अशिक्षा उसकी आजादी की राह में सबसे बड़ी बाधा. इसलिए जब स्त्रियां पढ़ती हैं, तो वे कुछ और आजाद होती हैं. जब वे लिखती हैं, तो आगे की स्त्रियों की कई पीढ़ियां आजाद होती हैं. और जब बैठती हैं सहमी हुई-सी फर्स्ट इअर की क्लास में सपने देखती लड़कियां, तो अगले तीन साल में उनकी दुनिया बदल जाने की उम्मीद किसी यूटोपिया की तरह नहीं लगती.

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