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स्पष्ट दृष्टि आवश्यक

कश्मीर पर संसद के दोनों सदनों में चर्चा के बाद शुक्रवार को सर्वदलीय बैठक बुलाने का निर्णय स्वागत योग्य है. आठ जुलाई को हिजबुल कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद शुरू हुई अशांति में अब तक 60 लोग मारे जा चुके हैं. ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि इस नयी पहल को लेकर […]

कश्मीर पर संसद के दोनों सदनों में चर्चा के बाद शुक्रवार को सर्वदलीय बैठक बुलाने का निर्णय स्वागत योग्य है. आठ जुलाई को हिजबुल कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद शुरू हुई अशांति में अब तक 60 लोग मारे जा चुके हैं. ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि इस नयी पहल को लेकर केंद्र सरकार किस हद तक गंभीर है. बीते एक महीने से अधिक समय में स्थिति को सामान्य बनाने की सरकार की कोशिशें असफल ही साबित हुई हैं.
गृह मंत्री राजनाथ सिंह कश्मीर का दौरा भी कर चुके हैं, पर वह भी बेअसर रहा. देर से ही सही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान तो आया, लेकिन इसके लिए उन्होंने मध्य प्रदेश का एक सुदूर इलाका चुना. सरकार को यह समझना चाहिए कि शांति के मौखिक निवेदन से कश्मीर समस्या का समाधान संभव नहीं है. इसके लिए मंशा और दृष्टि की स्पष्टता तथा नीतिगत प्रतिबद्धता का होना आवश्यक है.
यह याद किया जाना चाहिए कि बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एकतरफा युद्ध विराम जैसा बड़ा निर्णय लिया था और कश्मीरियों के विरुद्ध बल-प्रयोग पर रोक लगा दी थी. आतंकी घटनाओं तथा उग्र प्रदर्शनों के बावजूद वे अपने फैसले पर कायम रहे. उन्होंने कश्मीर जाकर ‘इनसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ के आदर्श की घोषणा की थी. भाजपा के सहयोग से जम्मू-कश्मीर में सत्तारूढ़ पीडीपी से सांसद मोहम्मद फय्याज ने राज्यसभा में कहा भी है कि अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा शुरू की गयी शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया होता, तो कश्मीर में इतनी नाराजगी नहीं होती. दोनों सदनों में बातचीत करने की जरूरत पर जोर दिया गया है.
सरकार की नजर में कश्मीर अगर सिर्फ कानून-व्यवस्था या सैन्य मसला है, तो फिर हमें किसी अच्छे नतीजे की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए. वाजपेयी सरकार ने एएस दुलत जैसे अनुभवी अधिकारियों और रणनीतिकारों को शांति बहाली के काम में लगाया था, तो मनमोहन सरकार ने सम्मानित विद्वानों को वार्ताकार बना कर भेजा था.
मौजूदा सरकार को भी अपनी कश्मीर नीति को समुचित रूप से परिभाषित कर योग्य लोगों को संवाद प्रक्रिया में शामिल करना चाहिए. कश्मीर की नयी पीढ़ी के मिजाज को समझते हुए उससे सीधे संवाद की जरूरत है. ऐसी पहलों के परिणामस्वरूप ही 2002 से 2010 तक घाटी में अमन-चैन का माहौल बना था. जोर-आजमाइश की जगह भरोसा जीतने की धैर्यपूर्वक कोशिशें होनी चाहिए. उम्मीद है कि सरकार विभिन्न राजनीतिक दलों की राय और घाटी के लोगों की भावनाओं पर खुले मन से विचार करेगी और समुचित नीतिगत समझ के साथ कश्मीर में शांति बहाली के लिए प्रयासरत होगी.

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