।। असगर वजाहत।।
(लेखक, यायावर, चित्रकार)
भारत में परिवर्तन आने की दो दिशाएं हैं. एक है संवैधानिक और दूसरा गैर-संवैधानिक. हम यहां सिर्फ संवैधानिक दिशा की चरचा करना चाहेंगे. संवैधानिक का अर्थ है कि कोई भी काम एक न्यायोचित प्रक्रिया के तहत किया जाये. किसी काम के लिए नीति-निर्देशक तत्वों के आधार पर एक सही दिशा तय हो. सहभागिता, पारदर्शिता और जवाबदेही- ये तीन चीजें जब तक संवैधानिक रूप से ताकत की चीजें नहीं बनेंगी, तब तक हम यह सुनिश्चत नहीं कर सकते कि हमारे समाज में कोई आमूल-चूल परिवर्तन आयेगा. इस आधार पर देखें तो अरविंद केजरीवाल सहभागिता, पारदर्शिता और जवाबदेही, इन तीनों से बच रहे हैं. यह किसी मुख्यमंत्री के लिए अच्छी बात नहीं है.
कुछ लोग कह रहे हैं कि हमारे देश में राजनीति की एक नयी बयार बह रही है और हमारी राजनीति किसी दूसरी दिशा में मुड़ गयी है. मेरा मानना है कि देश की राजनीति किसी ऐसी समानांतर राजनीति की तरफ नहीं जा रही है, जिससे कहा जा सके कि राजनीति की एक नयी बयार बह रही है. अरविंद केजरीवाल की जो राजनीति है, उसे राजनीति कहना ही गलत होगा. केजरीवाल तो बस सत्ता की उदासीनता के कारण लोगों में उपजी असंतोष की भावना का फायदा उठाने की राजनीति कर रहे हैं.
एक मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल को एक बेहतरीन अवसर मिला है, कि वे जनहित के मुद्दों को उठाएं और उन पर सार्थक नीतियां बना कर उन्हें साकार करने की कोशिश करें. फिलहाल सरकार को लंबे समय तक चलाने के लिए केजरीवाल के पास कोई नीति नहीं है. वे चाहते तो हैं कि ऐसा हो जाये या वैसा हो जाये, लेकिन किसी मुद्दे पर उनके पास स्पष्ट नीति नहीं है. मसलन अगर उनसे पूछा जाये कि दिल्ली की शिक्षा-व्यवस्था में सुधार करने के लिए क्या किया जाना चाहिए, तो उनके पास माकूल जवाब नहीं होगा. इसी कड़ी में आर्थिक नीति, सांस्कृतिक और भाषा नीति, सामाजिक मूल्यों की नीति, प्रशासनिक नीति वगैरह को भी रखा जा सकता है. इस समय उन्हें सबसे बड़ा मुद्दा दिल्ली को पूर्ण राज्य का दरजा दिलाना लग रहा है. इसलिए वे दिल्ली पुलिस की खामियां गिनाते हुए केंद्र सरकार पर प्रहार कर रहे हैं. लेकिन यह बात महत्वपूर्ण है कि कोई भी सरकार ठोस नीतियों के बिना नहीं चल सकती. सरकार की नीतियों में सभी पक्षों के हितों का ध्यान रखना भी जरूरी है. लेकिन नीतिगत सवालों पर आप के लोग अस्पष्ट जवाब ही देने के आदी रहे हैं. मसलन, वे कहते हैं, आम आदमी की शक्ति को आप नहीं पहचानते, आम आदमी ने ये कर दिया है, वो कर दिया है वगैरह.
वैसे तो केजरीवाल हर मुद्दे पर जनता की राय लेते रहे हैं, यह अच्छी बात है, लेकिन क्या दिल्ली पुलिस के खिलाफ धरने पर बैठने से पहले उन्होंने कोई रायशुमारी की थी? दिल्ली की जनता की बड़ी समस्याओं को दरकिनार कर वेश्यावृत्ति और नशाखोरी के मुद्दे पर उनका धरने पर बैठना समझ से परे है. अभी दिल्ली में सैकड़ों-हजारों लोग भीषण ठंड में ठिठुरने को मजबूर हैं. ठंड से मरनेवालों की संख्या बढ़ती जा रही है, लेकिन उनके लिए कारगर इंतजाम नहीं किया जा रहा है. दिल्ली का मुख्यमंत्री ठंड से ठिठुरते लोगों के लिए रात में सरकारी स्कूलों के बरामदे में सोने की व्यवस्था तो आसानी से कर ही सकता है. लेकिन दिल्ली सरकार गरीबों, बेघरों से बेगाना होकर वेश्यावृत्ति और नशाखोरी जैसे मुद्दों में उलझी है. और फिर यह तो उन्हें चुनाव लड़ने से पहले ही मालूम होगा कि दिल्ली पुलिस पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण नही होता. अगर उनकी नजर में यही सबसे बड़ा मुद्दा था, तो उन्होंने इसे चुनाव का प्रमुख मुद्दा क्यों नहीं बनाया था. कुल मिला कर आप ने सरकार बनाने से पहले जो मुद्दे उठाये थे, उन पर मुकम्मल काम नहीं कर रही है.
हर चीज का एक संवैधानिक तरीका होता है. ऐसा नहीं होता कि आप कहें और दिल्ली पुलिस तुरंत दिल्ली सरकार के अंतर्गत आ जाये. उसे एक संवैधानिक प्रक्रिया से गुजरना होगा. देश में संविधान है, संवैधानिक व्यवस्था है, जिसके तहत ही केजरीवाल मुख्यमंत्री बने हैं. इसलिए उसी संवैधानिक व्यवस्था से पूर्ण राज्य के मुद्दे को भी उठाया जाना चाहिए. सवाल यह नहीं है कि किसी मुख्यमंत्री का धरने पर बैठना सही है या गलत, असली सवाल यह है कि वह जिस मुद्दे पर धरने पर बैठा है, वह कितना जायज है और उसका धरना देना संविधान सम्मत है या नहीं? सवाल यह है कि मुख्यमंत्री ने जिस संविधान की शपथ ली है, वह उसका सम्मान करता है या नहीं? अगर मुख्यमंत्री ही संविधान को और कानून को ताक पर रख देगा, तो जनता से क्या उम्मीद की जा सकती है? अगर कोई मुख्यमंत्री कोई कानून तोड़ता है या तोड़ने का आह्वान करता है, तो यह बहुत ही गंभीर बात है.
(बातचीत : वसीम अकरम)