डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
इंग्लैंड के यूरोपियन यूनियन (इयू) से बाहर आने के निर्णय के बाद से ही दुनियाभर में उथल-पुथल जारी है. इंग्लैंड की मुद्रा पाउंड लुढ़क रही है. इंग्लैंड का यूरोप से अलगाव होने के बाद संभव है कि उस देश में स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कठिनाई हो. लेकिन शेष विश्व में क्यों संकट पैदा हो रहा है?
कारण है कि इंग्लंैड का यह कदम वैश्वीकरण की मूल प्रक्रिया पर ही प्रश्नचिह्न लगाता है. इंग्लैंड की आम जनता के लिए इयू की सदस्यता घाटे का सौदा हो गयी थी. इयू के सदस्य देशों के बीच श्रमिकों, माल तथा पूंजी का मुक्त आवागमन होता है. परिणामस्वरूप इयू के गरीब देश के कर्मियों का पलायन इयू के अमीर देशों को होता है.
इंग्लैंड के एक अफसर ने हंगरी की महिला को गृहकार्य के लिए रखा. इंग्लैंड के गृह कर्मियों की तुलना में वह कम वेतन पर तैयार थी. गरीब देशों से श्रमिकों के इस पलायन से इंग्लैंड के कर्मियों के वेतन दबाव में आये हैं, इसलिए इन्होंने इयू के सदस्य बने रहने से इनकार कर दिया है. इयू से बाहर आने से हंगरी जैसे गरीब देशों से इंग्लैंड को श्रमिकों का पलायन रुक जायेगा और आनेवाले समय में इंग्लैंड के कर्मियों के वेतन में वृद्धि होने की संभावना है.
ब्रेक्जिट का इंग्लैंड के उद्योगों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा. पिछले दशक में इंग्लैंड के उद्योगों को इयू की सदस्यता से भारी लाभ हुआ है. उन्हें हंगरी तथा पोलैंड के सस्ते श्रमिक मिले हैं.
इंग्लैंड में बने माल को वे यूरोपीय देशों में बेच सके हैं. अर्थशास्त्र के अनुसार, इंग्लैंड में उद्योगों को हुए लाभ से इंग्लैंड की सरकार को अधिक टैक्स मिलना चाहिए था, जिसका उपयोग इंग्लैंड की जनता को शिक्षा, स्वास्थ तथा अन्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए किया जा सकता था. इसे ‘ट्रिकल डाउन’ यानी रिसाव की थ्योरी कहते हैं. इंग्लैंड ने पाया कि ट्रिकल डाउन से उन्हें जो लाभ हुआ, उससे ज्यादा नुकसान हंगरी के सस्ते श्रमिकों के आने से हुआ है. इसलिए उन्होंने इयू से बाहर आने का निर्णय लिया है.
इंग्लैंड की जनता द्वारा लिया गया यह निर्णय वैश्वीकरण की मूल प्रक्रिया की विसंगति को दर्शाता है. वैश्वीकरण से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दुनियाभर में उत्पादन करने एवं माल बेचने की सुविधा मिल जाती है. इससे इनके लाभ बढ़ते हैं. लेकिन आम आदमी के लिए यह मुख्य रूप से घाटे का सौदा हो जाता है. इंग्लैंड में हंगरी से गरीब श्रमिक प्रवेश करते हैं और इंग्लैंड के श्रमिकों के वेतन दबाव में आते हैं. यानी केवल गरीबतम देशों के श्रमिकों को लाभ होता है.
प्रतिस्पर्द्धा के कारण उनके वेतन में मामूली ही वृद्धि होती है. इस प्रकार वैश्वीकरण बड़ी कंपनियों को अधिक लाभ पहुंचाता है और आम आदमी को बहुत ही मामूली लाभ. इंग्लैंड द्वारा लिये गये निर्णय ने इस सच्चाई को सामने लाया है.
इंग्लैंड के निर्णय में हमारे लिए गहरा सबक है. इंग्लैंड के उद्योगों की तरह हमारे उद्योग भी वैश्वीकरण से लाभान्वित हुए हैं.
हमारे उद्यमियों द्वारा इंग्लैंड के उद्यमों को खरीदा जा रहा है, जैसे टाटा ने कार निर्माता जैगुआर को खरीदा है. इंग्लैंड में आनेवाले विदेशी निवेश में भारतीय उद्यमी तीसरे नंबर पर हैं. फिर भी, भारत के आम आदमी के लिए वैश्वीकरण घाटे का सौदा है. चीन में बना सस्ता माल भारत में प्रवेश कर रहा है और तमाम छोटे उद्योगों को चौपट कर चुका है. असम तथा बंगाल में बंग्लादेश से भारी संख्या में लोग प्रवेश किये हैं.
दिल्ली में भी बंग्लादेशी कर्मी हैं. उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में नेपाल से सस्ते कर्मी आ रहे हैं. जिस तरह इंग्लैंड के कर्मी के रोजगार को हंगरी के कर्मियों ने हड़प लिया है, उसी तरह असम, बंगाल, दिल्ली, उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड के कर्मियों के रोजगारों को बंग्लादेश एवं नेपाल के कर्मी हड़प रहे हैं. इसलिए भारत की जनता भी मूल रूप से वैश्वीकरण से खुश नहीं है, यद्यपि अभी सरकारी प्रचार का खुमार इस सच्चाई को दबाये हुए है.
भारत का मध्यम वर्ग भी बड़े उद्योगों के साथ खड़ा है. इनका अनुभव है कि वैश्वीकरण के चलते भारत के तमाम कर्मी अमेरिका में जाॅब पा सके हैं. विकसित देशों की तमाम कंपनियों द्वारा भारत में साॅफ्टवेयर तथा रिसर्च की इकाइयां स्थापित की गयी हैं. जो साॅफ्टवेयर कर्मी भारत में पचास हजार रुपये वेतन पर उपलब्ध है, उसी को अमेरिका में पांच लाख रुपये देने पड़ते हैं. अपने देश में अमीर और मध्यम वर्ग एक साथ वैश्वीकरण के पक्ष में खड़े हैं और गरीब दीवार के दूसरी तरफ खड़ा है. यह विसंगति ज्यादा समय तक नहीं चल सकती है.
सरकार को चेतना चाहिए. मेक इन इंडिया के ख्याली पुलाव से भारत के आम आदमी को ज्यादा समय तक भुलावे में नहीं रखा जा सकेगा. जो हश्र आज इंग्लैंड की वैश्वीकरण समर्थक सरकार का हुआ है, वह कल भारत की वैश्वीकरण समर्थक सरकार का अवश्य होगा.