पवन के वर्मा
पूर्व प्रशासक एवं राज्यसभा सदस्य
हाल में पशुओं की संख्या कम करने के लिए उन्हें मारे जाने के सवाल पर मैं एक टीवी चैनल के पैनल डिस्कशन में शामिल था. पशुओं के हक के लिए मुखर रहनेवाली मेनका गांधी ने पशुओं को मारने की छूट देने को लेकर कैबिनेट साथी पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर पर सार्वजनिक तौर पर सवाल उठाया था.
जावेड़कर ने कुछ राज्य सरकारों को ऐसे पशुओं को एक खास समयावधि तक मारने की छूट दी है, जिनकी बढ़ी संख्या के कारण किसानों को नुकसान हो रहा है. इन पशुओं में नीलगाय, जंगली सुअर और बंदर शामिल हैं. मेरे लिए इस बहस में शिरकत करना एक दुखद दुविधा से भरा था. निजी तौर पर मैं एक प्रतिबद्ध पशु प्रेमी हूं. मेरे घर में पांच कुत्ते हैं. मेरे मन में इस बात पर विरोध उभर रहा था कि प्रशिक्षित नकाबपोशों द्वारा पशुओं की बेरहमी से हत्या की जा रही है. मुझे ये बातें द्रवित कर रही थीं कि कैसे इन पशुओं पर गोलियां चलायी जा रही हैं और कैसे वे कई बार घायल होने पर मरने से पहले तक दर्द से तड़पते रहते हैं. मुझे यह बात भी समझ में आ रही थी कि इस सबकी बुनियादी वजह पशुओं के लिए प्राकृतिक परिवेश का सिकुड़ता जाना और वैसे जंगली क्षेत्रों में मानवीय अतिक्रमण है, जो परंपरागत तौर पर पशुओं के लिए सुरक्षित रहे हैं.
यह सब सोचते हुए मैं यह भी समझ रहा था कि किसानों की समस्या भी वाजिब है. ज्यादातर किसानों के पास तो खेती के अलावा पेट भरने का कोई दूसरा साधन भी नहीं है. केंद्र सरकार के सालाना आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, हर दो में से एक किसान के सिर पर 47 हजार रुपये का निजी कर्ज है. वे मनमाना सूद वसूलनेवाले महाजनों की गिरफ्त में हैं.
किसानों के लिए सिर्फ एक ही उम्मीद है कि खासी मेहनत और प्यार से बोये बीज अंतत: एक बेहतर फसल की शक्ल लें. पर जैसे ही इस उम्मीद के पूरा होने की बारी आती है, तो बंदरों या जंगली सुअरों के झुंड सब कुछ तहस-नहस कर देते हैं. किसानों की इस पीड़ा की अनदेखी कैसे की जा सकती है?
मेनका गांधी के तीखे सार्वजनिक आक्रमण के बाद जावड़ेकर बेबसी के साथ नियम-कायदों का हवाला देते हैं. 1972 के वन्यजीव सुरक्षा कानून के तहत एक अनुच्छेद है, जो केंद्र सरकार को इस बात की इजाजत देता है कि वह राज्य सरकारों से शिकायत मिलने के बाद वन्यजीवों की संरक्षित प्रजातियों से किसी पशु विशेष को बाहर कर सकता है. केंद्र अगर जरूरी समझे, तो इन्हें सामूहिक तौर पर मारने की अनुमति भी कुछ समय के लिए दे सकता है.
जावड़ेकर के मंत्रालय ने इसी प्रावधान के तहत राज्य सरकारों से उनके प्रस्ताव मांगे. बिहार सरकार ने नीलगायों, हिमाचल प्रदेश ने बंदरों और उत्तराखंड ने जंगली सुअरों के सामूहिक खात्मे की बात कही. ऐसा नहीं कि ऐसी व्यवस्था कोई अकेले भारत में है. दक्षिण अफ्रीका में इसी तरह हाथियों को तब सामूहिक तौर पर मारने की छूट है, जब वे फसलों के साथ आबादी वाले क्षेत्रों में तबाही मचाने लगते हैं. अॉस्ट्रेलिया में भी ऐसे हालात में कंगारुओं को मारने की इजाजत है.
बिहार में नीलगाय गंडक और गंगा के चौड़े तटवर्तीय क्षेत्र में भोजपुर से भागलपुर तक एक अभिशाप बन कर सामने आया है. नीलगायों से निपटने के नसबंदी या उन्हें दूर कहीं छोड़ आने के तरीके भी यहां अपनाये गये, पर वे कारगर साबित नहीं हुए. ऐसे में कौन सही है- जावड़ेकर या मेनका, पशुप्रेमी कार्यकर्ता या किसान? मेरी नजर में इस मुद्दे पर सीधे-सीधे गलत या सही का फैसला लेना मुश्किल है.
एक अच्छी पर्यावरण नीति में पशुओं के लिए बेहतर परिवेश की चिंता शामिल होनी चाहिए. इसी तरह एक बेहतर कृषि नीति के लिए जरूरी है कि वह तब किसानों के लिए मददगार हो, जब उनकी आजीविका पर कोई बड़ा संंकट हो. जावड़ेकर और उनकी सरकार को चाहिए कि वह पर्यावरण के मुद्दे पर ज्यादा व्यापकता से विचार करे और इसके लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक नीतियों का निर्माण करे. पशुप्रेमियों को भी ऐसे मामलों में एकतरफा हंगामा नहीं मचाना चाहिए.
तकरीबन तीस साल पहले मैंने दिल्ली-गुरुग्राम की सीमा पर दो एकड़ का फार्म खरीदा था. उसके एक हिस्से में बागवानी की शौकीन मेरी पत्नी कुछ सब्जियां उगाती हैं. हर साल अरावली क्षेत्र से आनेवाले नीलगाय इन सब्जियों को नुकसान पहुंचाते हैं. हम चाहें तो बर्बाद सब्जियों का रोना और नीलगायों के प्रति प्रेम का इजहार साथ-साथ कर सकते हैं, क्योंकि हमारी आय का साधन सिर्फ यही नहीं है. लेकिन किसानों के आगे ऐसा सुविधाजनक विकल्प नहीं है.
यह भी कि नीलगायों का आतंक ऐसे ही नहीं बढ़ा है. गुरुग्राम ने उनसे उनका प्राकृतिक परिवेश छीन लिया है. दरअसल, मनुष्य और पशुओं के बीच का यह संघर्ष हममें से हरेक की समस्या है. इसलिए इससे निपटने के लिए फौरी तौर पर तत्पर होना होगा. केंद्रीय मंत्रियों को भी साझे तौर पर सोचना होगा. (अनुवाद प्रेम प्रकाश)