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फर्क चीन और भारत का!

-हरिवंश- चीन पर तीन विशिष्ट सामग्री पढ़ी. पिछले सप्ताह (1) न्यूजवीक (6 अक्टूबर 08) में चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबो का इंटरव्यू. (2) पिछले सप्ताह प्रकाशित अरूण शौरी की पुस्तक ‘आर वी डिसिविंग आवरसेल्भस अगेन? (लेशंस द चाइनीज टाट पंडित नेहरू बट ? व्हीच वी स्टील रिफ्यूज टू लर्न)’. और (3) एक मित्र द्वारा भेजा […]

-हरिवंश-

चीन पर तीन विशिष्ट सामग्री पढ़ी. पिछले सप्ताह (1) न्यूजवीक (6 अक्टूबर 08) में चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबो का इंटरव्यू. (2) पिछले सप्ताह प्रकाशित अरूण शौरी की पुस्तक ‘आर वी डिसिविंग आवरसेल्भस अगेन? (लेशंस द चाइनीज टाट पंडित नेहरू बट ? व्हीच वी स्टील रिफ्यूज टू लर्न)’. और (3) एक मित्र द्वारा भेजा गया जान डब्लू गार्वर की पुस्तक ‘प्रोट्रेक्टेड कानटेस्ट’ (दीर्घकालिक युद्ध) का सारांश.

न्यूजवीक इंटरव्यू से पता चलता है, चीन के नेतृत्ववर्ग की क्वालिटी (स्तर) क्या है? चीन कितना ताकतवर बन चुका है. अरूण शौरी और गार्वर की पुस्तकें भारत की राजनयिक व कूटनीतिक विफलताओं और अंदरूनी कमजोरियों को बताती हैं.इन तीनों सामग्रियों के निष्कर्ष और संदेश साफ हैं. चीन को महाशक्ति बनाने वाला नेतृत्व अलग मिट्टी का बना है. भारत का नेतृत्ववर्ग, चीन के नेतृत्ववर्ग के सामने बौना, अनैतिक, ज्ञानशून्य और दरिद्र है. विजन में. रणनीति में. दूरगामी सोच में. गवर्नेंस में. अपने देश हित में. इफीसियेंसी (क्षमता) और कुशलता में. चीन की डिप्लोमेसी (राजनय) के सामने, भारत अबोध शिशु है.

भारत के सभी राजनीतिक दलों को एक मंच पर खड़ा कर दें, तो यकीनन दर्जन भर नेता भी इन बदलावों के बारे में नहीं जानते. भारतीय राजनीति में एक और बड़ा फर्क आया है. विदेशी सवाल पब्लिक एजेंडा नहीं बन रहे. दशकों पहले डॉ राममनोहर लोहिया, चीनी आक्रमण के मुद्दे को ‘कामन मैन’ के बीच ले गये थे. तब और आज के चीन में जमीन-आसमान का फर्क है. उन दिनों चीन और भारत एक धरातल पर थे. एक समान. आज चीन महाशक्ति है. और चीन के सामने भारत दबा, घिरा और असहाय हाल में. पर भारत के राजनीतिज्ञ, या तो घर भरने में लगे हैं, या एक दूसरे की धोती खोलने में मशगूल हैं. चीन को लेकर चिंतित नहीं हैं. देश के अंदर आतंकवाद का खौफ. बाहर चीन की धौंस! यह भी है, आज का भारत!

न्यूजवीक का दावा है कि वर्षों बाद किसी चीनी प्रधानमंत्री ने किसी पश्चिमी प्रकाशन से बात की है. यह इंटरव्यू पढ़ कर लगा चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबो मौजूदा विश्व नेताओं से अलग हैं. उनके कद का दूसरा नहीं. वह प्लेटो के सिद्धांत ‘फिलासफर किंग’ (दार्शनिक राजा-शासक) में यकीन करते दिखते हैं. पत्रिका ने उनसे एक सवाल किया? आपने कहा है कि मारकूस अरेलियस की रचनाओं को आपने सौ बार पढ़ा है? वह विरक्त दार्शनिक थे.

वेन का जवाब महत्वपूर्ण है. वह कहते हैं, यह सच है कि मैंने मारकूस का ‘मेडिटेशन’ (पुस्तक का नाम) कई बार पढ़ा है. उनके लिखे का मेरे ऊपर गहरा असर है. मैं नैतिकता को बहुत तरजीह देता हूं. यकीन करता हं, उद्यमी, अर्थशास्त्री, स्टेटमैन (शासक) सबको नैतिकता और नीति को श्रेय देना चाहिए.

पूरी बातचीत में वेन अनोखे ‘फिलासफर किंग’ (दार्शनिक शासक) की तरह उभरते हैं. इन दिनों सत्ता में बैठे लोगों का दार्शनिकों, विद्वानों या चरित्रवानों से कोई रिश्ता नहीं है. मारकूस का नाम इस इंटरव्यू में पहली बार पढ़ा. इनसाइक्लोपीडिया का सहारा लिया. मारकूस अरेलियस, रोमन सम्राट थे. दार्शनिक भी. ईसा पूर्व 121 से 180 के बीच. उनकी बहुचर्चित कृति है ‘मेडिटेशन’. वह शासन, सत्ता और राज संचालन की गूढ़ बातें करते हैं. वह दुनिया के पांच बड़े सम्राटों में से एक माने गये. अपनी क्षमता, शासन संचालन और प्रो-पीपुल रूझान के कारण. भारत के चंद्रगुप्त की तरह, पर चाणक्य का व्यक्तित्व भी सम्राट मारकूस में था. संक्षेप में कहें तो चंद्रगुप्त और चाणक्य के व्यक्तित्व का मेल मारकूस में था.

कहा जाता है, सृष्टि जैसी है, उसे समझने की कोशिश दार्शनिक ने की. प्रकृति के नियमों का शोध या अध्ययन किया वैज्ञानिकों ने. परंतु संसार, देश या समाज को बदलने का काम, न दार्शनिक ने किया , न वैज्ञानिक ने. अर्थशास्त्री सिर्फ व्याख्या करते रहे. यह काम हाथ में लिया राजनेताओं ने, जो न दार्शनिक थे, न वैज्ञानिक और न अर्थशास्त्री. जो लोग दर्शनमूढ़ थे, विज्ञानमूढ़ थे, आर्थिक नियमों के गैरजानकार थे, उन्होंने ही समाज और सृष्टि को बदलने का काम, आज अपने हाथ में ले लिया है. हमारी संस्कृति में विदेह जनक के शासन की कल्पना है. बाद के दिनों में हर्षवर्धन जैसे शासकों का नाम आता है, जो वर्ष में एक बार सब कुछ दान कर खुद फकीर बन जाता था. पर व्यक्तित्व चर्चा यहां मकसद नहीं है. दर्शन या सिद्धांत से प्रभावित शासक देश मजबूत बनाते हैं.

उनके लिए ‘देश’ और ‘जनता’ पहले हैं. स्व, अपना बाद में. यह नेतृत्व आज चीन के साथ है. आजादी के तत्काल बाद ऐसा ही नेतृत्व भारत में था. उभरता चीन भारत के लिए भय पैदा करता है. अरूण शौरी की पुस्तक (रूपा प्रकाशन) भारत के प्रति चीन के खतरनाक इरादों को साफ-साफ रेखांकित करती है. भारत शायद भूल गया है. 1950 में सरदार पटेल ने पंडित नेहरू को चीन पर लंबा पत्र लिखा. चीन के प्रति उनकी मैत्री नीति से सावधान किया. वह ऐतिहासिक पत्र है. उस पत्र में लिखा है कि चीन तिब्बत को हड़पेगा. फिर भारत पर हमला करेगा. 12 वर्ष बाद 1962 में यही हुआ.

इस हमले से नेहरूजी टूट गये. यह सदमा नहीं झेल सके. पर तीसरी या चौथी संसद ने शपथ ली थी. चीन से जमीन वापस लेंगे, तभी बातचीत करेंगे. पर भारत ने राजीव गांधी (1988 की चीनी यात्र) और नरसिंह राव (1993 की चीनी यात्रा) के जमाने में घुटने टेक दिये. चीन से बातचीत शुरू हो गयी. पर आज भी चीन अपने उन्हीं इरादों और शर्तों पर कायम है. भारत अपनी खोयी एक इंच जमीन नहीं पा सका है. ’62 में जिस स्वाभिमान और क्षत पर हमला हुआ, वह आज भी आहत, छिन्न-भिन्न है.

चीन, साउथ एशिया में एकाधिपत्य की स्थिति में है. बर्मा उसकी छत्रछाया में है. बर्मा के नीचे समुद्री इलाके में बंगाल की खाड़ी तक चीन के नौसैनिक अड्डे हैं. चीन और बांगलादेश के संयुक्त सैनिक अभ्यास ’80 के दशक में शुरू हुए. हिमालय के क्षेत्रों नेपाल, भूटान, सिक्किम और अरूणाचलप्रदेश पर वह पुरानी रट लगाये हुए है. नेपाल को भारी अस्त्र देकर मदद दे रहा है. पाकिस्तान उसके बूते परमाणु संपन्न देश है. दो रास्ते चीन ने अपनाये हैं. पहला, गैरसैनिक रणनीति. भारत के सीमावर्ती इलाकों में चौड़ी और बड़ी सड़कें बना कर. पाकिस्तान में, नेपाल में, तिब्बत में, बर्मा में , अरूणाचल, भूटान और सिक्किम के सीमावर्ती इलाकों में, चीन ने चौड़ी सड़कें बनायी हैं. इस तरह चीन ने भारत के पड़ोसियों से मिलकर, भारत की घेराबंदी कर दी है. दूसरी तरफ, दुनिया के सामने चीन का स्वर है, चीन-भारत मैत्री. इस तरह चीन, भारत के बारे में अंतर्विरोधी रणनीति रखता है. एक तरफ मैत्री की बात, दूसरी तरफ भारत के सभी पड़ोसी देशों से मिलकर भारत की घेराबंदी. दरअसल माओ के शासन में भारत के प्रति रणनीति थी, चीनी समर्थक साम्यवादियों के बल खूनी क्रांति. लेकिन महाशक्ति बना चीन अब दोहरी अंतर्विरोधी रणनीति पर काम कर रहा है. गार्वर के शब्दों को कोट करें तो ‘करेक्ट हैंडलिंग आफ कांट्राडिक्शन’. दूसरी तरफ, भारत की कोई न नीति है, न रणनीति. चीन हर मौके पर भारत के खिलाफ है. भारत के न्यूक्लीयर क्लब का सदस्य बनने में उसने खुलेआम अड़चन डाली.

हालांकि पहले उसका बयान आया था कि वह समर्थन करेगा. पर चीन जो कहता है, उसके उलट करता है. यह बहुत पहले राममनोहर लोहिया ने कहा था. अरूण शौरी और गार्वर की पुस्तकें भारत के भविष्य के बारे में चिंता करती हैं. चीन के एक-एक तथ्यात्मक दांवपेंच, आक्रामक रणनीति और तैयारी का इनमें विवरण है. चीन की सेना ज्यादा दक्ष, कुशल और मारक है. सुसज्जित और घातक हथियारों से लैस. एक तरफ चीन की यह सैनिक ताकत दूसरी ओर उसकी प्रभावी कूटनीति, महाशक्ति के रूप में चीन का उदय, तीसरी ओर हर मौके पर भारत को हेय दिखाना, चीन के इरादे बताते हैं. एक राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबार में 5 अक्टूबर 08 को रिपोर्ट छपी. अमरीका में चीन ने भारत पर कला प्रदर्शनी आयोजित की. उसमें भारत की गरीबी, भिखमंगों, मुंबई के धोबियों, झोपड़पट्टियों में रहनेवाले और भीड़ भरी ट्रेनों के दृश्य दिखाये गये. भारत की स्थिति-गरीबी का उपहास उड़ाने के भाव में.

इसी प्रदर्शनी के आसपास ही अमरीका जाकर चीन के प्रधानमंत्री वेन, न्यूजवीक से कह रहे थे, चीन की अर्थव्यवस्था लगातार तीस वर्षों में 9.6 फीसदी की दर से बढ़ी है. 2003 से 2007 के बीच दहाई में यह विकास दर थी, पर उपभोक्ता कीमत सूचकांक 2 फीसदी से कम बढ़ा. यह सचमुच दुनिया के लिए स्तब्धकारी है. इस चीन के पास एक ट्रिलियन डालर के अमेरिकी ट्रेजरी बिल हैं. अगर चीन चाहे तो वह मौजूदा अमरीकी आर्थिक संकट की आग में घी डाल सकता है. अमरीका को तबाह कर सकता है. पर चीन के दार्शनिक प्रधानमंत्री विनम्रता से कहते हैं, ‘मैं यकीन करता हूं कि अमरीका से सहयोग ही रास्ता है’. वह इस सवाल पर बच निकलते हैं कि चीन नया सुपरपावर है.

पर चिंता दूसरी है. चीन का नेतृत्व दार्शनिक है. देश के बारे में सोचता है. इसके ठीक विपरीत भारत के नेतृत्व की क्या स्थिति है? यह अरूण शौरी की पुस्तक, गार्वर की नयी पुस्तकों से पता चलता है. दुनिया के अनेक जाने-माने सुरक्षा विशेषज्ञों ने भी इन सवालों पर पहले भी लिखा है. क्या भारत की राजनीति, राजनेता कभी अपने स्वार्थ घेरे से ऊपर उठ कर देश हित में सोचेंगे.

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