चिटफंड कंपनियों द्वारा लाखों छोटे निवेशकों की पूंजी सुरक्षित रख पाना संदेह के घेरे में आ गया है. ये कंपनियां बाजार व बैंकों से अधिक ब्याज देकर निवेशकों को आकर्षित करती हैं.
प्रश्न है कि यह संभव कैसे है कि बाजार से अधिक ब्याज दिये जा सकें? कंपनी को अपनी पूंजी पर 12 प्रतिशत प्रति वर्ष की आय हो रही हो तो वह जमाकर्ता को 15 प्रतिशत ब्याज नहीं दे सकती है, पर निजी कंपनियां कभी-कभी ऐसे ऊंचे ब्याज देती देखी जाती हैं. इन कंपनियों का बिजनेस मॉडल इस प्रकार का होता है कि शुरू में ये जमाकर्ताओं को ऊंचा ब्याज देकर नुकसान उठाती हैं, पर नये लोगों से प्राप्त राशि से धंधा जारी रखती हैं.
जैसे राम द्वारा जमा रकम पर ऊंचे ब्याज देकर कंपनी ने 10,000 रुपये का नुकसान उठाया, पर इस लालच में दूसरे निवेशकों से एक लाख रुपये जमा करा लिये. इन एक लाख रुपये पर घाटा लगा, तो नये निवेशकों से पांच लाख जमा करा लिये. जैसे घाटे में चलनेवाली कंपनी लोन लेकर काम चलाती हैं, उसी तरह ये कंपनियां नये निवेश से प्राप्त रकम से पुराने नुकसान की भरपाई करती हैं.
इस बिजनेस में सबसे अहम है इमेज और क्रेडिट. निवेशकों को भरोसा हो जाये कि उसकी पूंजी सुरक्षित है, तो कंपनी के पास नयी पूंजी आती रहती है और घाटे का पता नहीं चलता है. लेकिन घाटा वहन करने की एक सीमा होती है. घाटे में चलनेवाली कंपनियों को लोन देने में बैंक संकोच करने लगते हैं. इसी प्रकार नये निवेशकों से नयी जमा रकम मिलते रहना कठिन हो जाता है.
निवेशकों को संदेह होने लगता है कि कहीं कंपनी डूब न जाये. ऐसे में निवेशक अपनी जमा पूंजी की वापसी मांग करने लगते हैं और कंपनी का दिवालिया निकल जाता है.
अपने देश में ऐसे तमाम प्रकरण होते आये हैं. 1979 में कोलकाता में संचयिता नाम की कंपनी का दिवाला निकल गया था. इसके मालिक तब से फरार हैं. इसके बाद सागवान के पेड़, बकरी, सूसी चिड़िया आदि में निवेश से हर माह दो फीसदी से अधिक रिटर्न के ऑफर आते रहे. सस्ते मकान देने के वायदे भी किये गये. पर इन योजनाओं का भंडाफोड़ हुआ, क्योंकि टोपी बदलते रहने के लिए काफी संख्या में नये मुंडों की जरूरत होती है.
ऐसे प्रकरण दूसरे देशों में भी होते आये हैं. पिछले दशक में अमेरिका में तकनीकी कंपनियों के स्टॉक एक्सचेंज के अध्यक्ष हुए बर्नार्ड मैडाफ, जिन्होंने मैडाफ इन्वेस्टमेंट सिक्योरिटी नाम से कंपनी बनायी. इस कंपनी द्वारा निवेशकों को जमा राशि पर दस प्रतिशत से अधिक वार्षिक लाभ के वायदे किये जाते थे, जबकि बाजार में ब्याज दर चार फीसदी ही थी.
2008 में भंडाफोड़ हो गया. जमाकर्ताओं को मैडाफ रकम वापस नहीं कर सके और उन्हें हिरासत में ले लिया गया. फिर भी यह क्रम तबतक चलता रहा, जब तक बाजार को उनकी साख पर विश्वास था, नये जमाकर्ता अपनी रकम उनके पास जमा कराते रहे. घाटा लगता रहा, परंतु बाहरी विश्वास जता कर मैडाफ नये निवेशकों को लुभाते रहे. जब घाटा ज्यादा हो गया, तब वे जमाकर्ताओं को रकम लौटा नहीं सके.
ऐसी कंपनियों की मजबूरी होती है कि निगेटिव पब्लिसिटी न हो, अन्यथा नये जमाकर्ता लुप्त हो जायेंगे. इसका लाभ उठाते हुए राजनीतिज्ञ इन्हें ब्लैकमेल करते हैं. इनका खेल इमेज बनाये रखने का होता है. इसलिए लोकप्रिय शख्सीयतों को ये ब्रैंड अंबेसडर बनाते हैं. ऐसी योजनाओं पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है. राजनीतिक संबंधों के चलते नियामक इनके प्रति सुस्त हो जाते हैं.
नियामक कौन है, यह भी अस्पष्ट है. कानून में तीन नियामक हैं. रिजर्व बैंक द्वारा निश्चित ब्याज दर पर लिये अथवा दिये गये लोन का नियमन किया जाता है. नन बैंकिंग फाइनेंस कंपनियां एवं बैंक रिजर्व बैंक के आधीन होते हैं. दूसरा नियामक सेबी है.
इसका आधार क्षेत्र ‘निवेश’ का है. शेयर बाजार का नियमन सेबी द्वारा होता है. तीसरा नियामक राज्य सरकार का रजिस्ट्रार ऑफ चिटफंड होता है. चिटफंड द्वारा 49 से कम लोगों के समूह बनाये जाते हैं, जैसा कि किट्टी में. 49 से अधिक सहभागी होने पर संस्था चिटफंड से निकल कर रिजर्व बैंक अथवा सेबी के अधिकार क्षेत्र में आ जाती है.
घोटाले मुख्यत: सेबी की लापरवाही के कारण हुए दिखाई देते हैं. जैसे सागवान के वृक्ष में ‘निवेश’ की योजनाओं में तमाम लोगों को घाटा लगा है. इन पर नियंत्रण करना सेबी की जिम्मेवारी थी. कॉरपोरेट अफेयर्स मंत्री सचिन पायलट ने राज्यों के मुख्य मंत्रियों से आग्रह किया है कि राज्य पुलिस द्वारा दोषी कंपनियों के विरुद्घ कार्यवाही की जाये. यह पल्ला झाड़नेवाली बात है. सरकार को चाहिए कि सेबी को इस निगरानी के लिये पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराये.
।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।