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सोशल मीडिया और ज्ञान

प्रभात रंजन कथाकार हिंदी वाले पहले हर नयी प्रवृत्ति का विरोध करते हैं, फिर उसके माध्यम से नयी प्रवृत्तियों के विकास में लग जाते हैं. 1990 के दशक में कंप्यूटर का विरोध सबसे अधिक हिंदी प्रदेशों में ही हुआ. आज हिंदी प्रदेशों के युवाओं के जीवन को बदलने में सबसे अहम भूमिका कंप्यूटर की ही […]

प्रभात रंजन

कथाकार

हिंदी वाले पहले हर नयी प्रवृत्ति का विरोध करते हैं, फिर उसके माध्यम से नयी प्रवृत्तियों के विकास में लग जाते हैं. 1990 के दशक में कंप्यूटर का विरोध सबसे अधिक हिंदी प्रदेशों में ही हुआ. आज हिंदी प्रदेशों के युवाओं के जीवन को बदलने में सबसे अहम भूमिका कंप्यूटर की ही रही. देश-विदेश में कहीं भी चले जाइए, आपको हिंदी प्रदेशों के सॉफ्टवेयर इंजीनियर मिल जायेंगे. मुझे याद है कि नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखक जेएम कोएत्जी की किताब ‘यूथ’ में 60 के दशक के लंदन का जिक्र था. उसमें सॉफ्टवेयर इंजीनियर दक्षिण भारतीय था. अब यह तसवीर बदल गयी है.

बहरहाल, आजकल हिंदी में सोशल मीडिया को लेकर ठनी हुई है. हालांकि, इसको हिंदी में, हिंदी वालों में स्थापित हुए जमाना हो चुका है. अब इसे लेकर बहस छिड़ गयी है कि इसके आने से हिंदी में ज्ञान से अधिक सूचना का प्रकोप बढ़ रहा है. पहले की पीढ़ी कम-से-कम किताबों को पढ़ती थी, पुस्तकालयों में जाती थी, ज्ञान के स्रोत तलाशती थी, आज वह सोशल मीडिया और गूगल पर सूचनाओं के आदान-प्रदान में लगी हुई है. हालांकि, सोशल मीडिया के प्रयोगकर्ता सभी आयुवर्गों से आते हैं, लेकिन धीरे-धीरे यह बहस पुराने बनाम नये की हो गयी है.

सारा दोषारोपण नयी पीढ़ी के ऊपर किया जा रहा है. एक विद्वान ने तो यहां तक लिखा कि आलोचना की विधा के क्षय के पीछे बहुत बड़ी भूमिका सोशल मीडिया की है. क्या वास्तव में ऐसा है? हो सकता है, लेकिन यह मोनालिसा की तसवीर को एक एंगल से देखने जैसा है. तसवीर को दूसरे एंगल से देखने पर जो बात साफ होती है, वह यह है कि सोशल मीडिया हिंदी को मठाधीशी से मुक्त कर रही है. वही मठाधीशी जिसने साहित्य के इतिहास में दाखिल खारिज का खेल दशकों तक चलाया. संपूर्ण लोकप्रिय साहित्य की धारा को इतिहास से खारिज किया, यहां तक कि हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार जानकी वल्लभ शास्त्री और उन जैसे न जाने कितने लेखकों का नाम इतिहास की मानक समझी जानेवाली पुस्तकों से बाहर रखा.

आज हिंदी में एक नयी पीढ़ी आयी है, जो पूरी तरह से आत्मनिर्भर है, वह आलोचकों से अधिक उन पाठकों पर भरोसा करने लगी है, जो सीधे उसके लेखन को स्वीकार या अस्वीकार करते हैं. हिंदी में अचानक से किताबों के न बिकने का जो निराशावादी माहौल था, अब वह बदलने लगा है. अब ऐसा कहनेवालों की आवाजें मंद पड़ रही हैं कि हिंदी में 400-500 किताबें बिक जायें, तो बहुत बड़ी बात है.

इसके पीछे बहुत बड़ी भूमिका सोशल मीडिया की है. हिंदी विभागों में बरसों से जो हिंदी जड़ बनी हुई थी, उसको सोशल मीडिया ने जीवंत बना दिया है. हिंदी का मतलब हिंदी विभाग होता था, आज वह हिंदी का व्यापक परिसर बन गया है. फेसबुक की इस ऐतिहासिक भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इसने दशकों से हिंदी की सुप्त पड़ी हुई हिंदी को आपस में जोड़ने का काम किया है, बिना किसी खर्च के एक किताब के प्रकाशित होने की सूचना पूरे देश में हो जाती है. ब्लॉग पर किसी किताब की समीक्षा छपती है और उसकी बिक्री बढ़ जाती है.

ज्ञान बनाम सूचना की बहस अपनी जगह है, लेकिन हिंदी आलोचना की कुंद पड़ती धार के लिए सोशल मीडिया को जिम्मेवार ठहराना ज्यादती है. असल में हिंदी में ज्ञान का संकट कभी नहीं रहा, बल्कि संकट सूचना का था. लोगों तक सही संदर्भ में सही चीजों की सूचनाएं पहुंच नहीं पाती थीं, लेकिन अब वह पहुंच रही हैं. उसके माध्यम से हिंदी में थोड़ा-बहुत ही सही ग्लैमर आ रहा है, तो उसके लिए कुछ क्रेडिट सोशल मीडिया को भी देना ही पड़ेगा, अब खाली दोषारोपण से काम नहीं चलनेवाला है.

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